झारखंड में विपक्ष की जीत और भाजपा की पराजय के जानें कारण

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झारखंड मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने जिला अवर निबंधक, देवघर श्री राहुल चौबे को निलंबित करने से संबंधित प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी है।
झारखंड मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने जिला अवर निबंधक, देवघर श्री राहुल चौबे को निलंबित करने से संबंधित प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी है।

RANCHI : झारखंड में विपक्ष की जीत और भाजपा की पराजय के कारण जान लीजिए। भाजपा के लिए लोकसभा चुनाव जितना उत्साहजनक रहा, उतनी ही निराशा उसे विधानसभा चुनाव में हुई है। इसी साल हुए तीन विधानसभा चुनावों के परिणामों से हुई है। झारखंड विधानसभा के हालिया संपन्न चुनाव में तो भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है। लोकसभा चुनाव में भाजपा को झारखंड में भाजपा ने 51 फीसद वोट हासिल कर 81 में 57 विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल की थी और 14 संसदीय सीटों में 12 पर उसे जीत मिली थी। 35 विधानसभा सीटों पर भाजपा को 50 हजार से अधिक वोटों की लीड मिली थी। 16 क्षेत्रों में तो लीड मार्जिन 90 हजार से अधिक थी। तब आजसू पार्टी के साथ उसका गठबंधन था। लेकिन इस बार आजसू पार्टी भाजपा से अलग होकर मैदान में थी। नतीजा यह हुआ कि लीड या बड़ी मार्जिन वाली विधानसभा सीटों में ज्यादातर पर भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। इस बार विधानसभा चुनाव में भाजपा को 33.37 प्रतिशत ही वोट मिले। हालांकि 2014 के विधानसभा चुनाव में इसे 31.26 प्रतिशत ही वोट मिले थे और भाजपा 37 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। पिछले चुनाव में भाजपा की सहयोगी पार्टी रही आजसू को इस बार 8.1 प्रतिशत वोट हासिल हुए, लेकिन इस बार आजसू ने अकेले मैदान में खम ठोंका था।

रघुवर दास
रघुवर दास

महाराष्ट्र, हरियाणा के बाद झारखंड में भाजपा को मिली पटकनी उसके लिए सबक है और संभव है कि भाजपा आने वाले दिल्ली, बिहार और बंगाल के चुनावों में इससे सीख ले और अपनी रणनीति में बदलाव लाए। यहां इस बात की चर्चा करना आवश्यक है कि पांच साल तक पूर्ण बहुमत के साथ सरकार चलाने वाली भाजपा की झारखंड में ऐसी दुर्गति क्यों हुई। इसके कारण तलाशें तो पांच प्रमुख कारण नजर आते हैं।

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कारण तलाशने के क्रम में प्रसंगवश यह जिक्र आवश्यक है कि भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के सभी विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़े थे और जीत भी भाजपा को उन्हीं के नाम पर मिली थी। बाद में केंद्रीय नेतृत्व ने चौंकाने वाले अचर्चित नाम मुख्यमंत्री बतौर पेश किये। मसलन महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीश, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर और झारखंड में रघुवर दास के नाम अचानक मुख्यमंत्री के रूप में सामने आए। 2019 में इन्हीं राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी ने तेनृत्व को सामने रखा और चुनाव लड़ा। मसलन मुख्यमंत्री के नाम घोषित कर चुनाव लड़े गये। ऐसा करते समय भाजपा ने इस बात पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया कि सत्ता विरोधी (एंटी इनकैंबेंसी) वोट भी मायने रखते हैं।

बहरहाल, झारखंड की बात करें तो भाजपा की पराजय के पांच प्रमुख कारणों में प्रमुख कारण मुख्यमंत्री के रूप में रघुवर दास का गैर आदिवासी चेहरा पहला कारण है। चूंकि 2014 में जनता ने मोदी के नाम पर भाजपा को वोट दिये थे और आदिवासी बहुल राज्य होने के बावजूद गैर आदिवासी चेहरा रघुवर दास का मुख्यमंत्री बनाया जाना लोगों तो नागवार गुजरा था। लेकिन तब विरोध के कोई मायने नहीं थे। इस बार भाजपा ने अतिविश्वास में रघुवर दास के चेहरे पर ही चुनाव लड़ना उचित समझा। आदिवासी जनता के मन में गैर आदिवासी रघुवर के प्रति नाराजगी जाहिर करने का विधानसभा चुनाव में जाहिर करहने का यह मुफीद कारण बना। भाजपा को रघुवर के नेतृत्व में कामयाबी का भरोसा इसलिए था कि उन्होंने कई ऐसे काम किये थे, जिससे पार्टी विकास की सीढ़ीं समझती थी। मसलन नये विधानसभा भवन, हाईकोर्ट भवन, सड़कों का निर्माण, किसानों को राहत राशि जैसे कई काम थे, जिनसे भाजपा को भरोसा था कि रघुवर के प्रति लोगों में आकर्षण पैदा हुआ होगा और बढ़ा होगा। लेकिन रघुवर दास ने कुछ ऐसे काम किये, जो सूबे की अधिसंख्य आदिवासी जमात को बदला चुकाने की भूमिका तैयार कर चुकी थी। मसल पारंपरिक सीएनटी-एसपीटी ऐक्ट से छेड़छाड़ की कोशिश, आदिवासी समुदाय की पत्थलगड़ी परंपरा पर पुलिसिया कहर, जिनमें एक खास गांव के हजार लोगों पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया और शिबू सोरेन परिवार के प्रति लगातार अशोभनीय और विवादित बयान ने आदिवासी समुदाय के वोटरों को भड़काने का काम किया।

दूसरा बड़ा कारण भाजपा और आजसू पार्टी का तालमेल टूटना था, जिसका खामियाजा वोटों के बिखराव के रूप में सामने आया। 53 सीटों पर चुनाव लड़ कर आजसूपा को महज दो सीटों पर जीत से संतोष करना पड़ा और भाजपा को 2014 के मुकाबले 12 सीटों के नुकसान के साथ मुंह की खानी पड़ी।

तीसरा बड़ा कारण पार्टी के वरिष्ठतम नेता सरयू राय का टिकट काटना था। सरयू राय की छवि बिहार और झारखंड में भ्रष्टाचार को उदागर करने वाले ईमानदार और बेबाक बोल वाले नेता के रूप में रही है। ऐसा भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की सहमति से हुआ। केंद्रीय नेतृत्व ने रघुवर दास पर अति भरोसा कर टिकट बंटवारे से लेकर चुनावी लड़ाई की बागडोर दे दी थी। समय-समय पर रघुवर दास सरकार की नाकामियों की ओर इशारा करने और नौकरशाही की कार्यशैली पर सार्वजनिक मंचों से आवाज उठाने की सरयू राय की आदत को रघुवर दास ने व्यक्तिगत खुन्नस में बदल दिया। अंतिम क्षणों तक वह टिकट का इंतजार करते रहे, लेकिन उन्हें पार्टी ने कहीं से भी उम्मीदवार नहीं बनाया। आखिरकार उन्होंने अपना चुनाव क्षेत्र बदल कर रघुवर दास के क्षेत्र से ही उनके खिलाफ निर्दलीय उम्मीदवार बतौर उतरने का फैसला किया। इसका परिणाम यह हुआ कि रघुवर दास पिछले चुनाव में 70 हजार की मार्जिन से जीतने के बावजूद अपनी सीट नहीं बचा सके।

चौथा कारण पार्टी के कार्यकर्ताओं-नेताओं की उपेक्षा कर आयातित और दागी नेताओं को रघुवर ने पार्टी में शामिल कराया। उन्हें टिकट दिया। इससे पार्टी के नाराज नेताओ के समर्थकों का गुस्सा भाजपा के प्रति था। इसका इजहार लोगों ने चुनाव में कर दिया। पांचवें कारण के रूप में भाजपा से टिकट न पाने वाले वे डेढ़ दर्जन नेता रहे, जिनमें से ज्यादातर ने भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा या भाजपा के विरुद्ध माहौल बनाने में मदद की।

विपक्ष ने शुरू से ही एका बनाये रखी। आदिवासी नेतृत्व के रूप में हेमंत सोरेन को सामने रखा। आदिवासी समाज को आहिस्ता-आहिस्ता विपक्ष गोलबंद करता रहा। नतीजा कामयाबी के रूप में सबके सामने है।

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झारखंड विधानसभा चुनाव से एक बात साफ हो गयी है कि आने वाले दिनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा को अपनी रणनीति बदलनी होगी। उसे नेतृत्व के बेदाग नाम सामने रखने होंगे या 2014 के आजमाये फार्मूले- मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने की रणनीति अपनानी होगी। इसे समझने के लिए झारखंड का ही उदाहरण पर्याप्त होगा। इसी साल लोकसभा चुनाव में मोदी के नाम पर झारखंज में भाजपा को जहां 51 प्रतिशत वोट मिले थे, वहीं रघुवर दास के नाम पर 33.4 प्रतिशत वोट ही पार्टी हासिल कर पाई।

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