- Chanchal Bhu
पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को याद करते हुए। बलिया से उठा, बुलन्दी छू गया। ठेठ, खुद्दार, गंवई अक्स, खादी की सादगी में मुस्कुराता चेहरा। अब नही दिखेगा। न सियासत में, न ही समाज में। क्योंकि ऐसे लोग अब कैसे बनेंगे, जब उस विधा का ही लोप हो गया है, जो विधा चंद्रशेखर को गढ़ती रही।
विषयांतर है। एक दिन जौनपुर की एक जबरदस्त शख्सियत कांग्रेस के नेता रहे कमला सिंह के यहां कोई आयोजन था। आयोजन की उनकी रिवायत में सब दल, खुले मन से शामिल होते रहे। जाहिर है, हम भी मौजूद रहे। नगरपालिका चेयरमैन दिनेश टंडन ने अचानक एक सवाल उछाल दिया- राजनीति सीखने का कोई संस्थान?
हम कुछ दूर बैठे थे, जहां ‘पोलिटिकल’ की निगाह न पहुंचे और कोई संजीदा आवाज न नमूदार हो। छोटे शहरों में आज भी यह रवायत है कि छिप कर पियो। कम से कम पीते समय किसी सम्भ्रान्त की आंख न पहुंचे। बहरहाल मजा लेनेवाले भी होते हैं। एक वकील साहब उठे और टंडन जी का सवाल लिए दिए हमारी महफ़िल में आ गए। हमने सवाल को पानी के जग में डाला और गिलास समेत उधर बढ़ गए, जिधर से सवाल उठा था।
हमने धीरज के साथ कहा- टंडन जी सियासत की पाठशाला जेल है और पास फेल का फैसला होता है, इस पर कि उस पाठशाला से आप ने कितना सबक हंसते हुए सीखा, कितना रोते हुए? ‘दाढ़ी’ (चंद्रशेखर जी को हम लोग आड़ में इसी नाम से संबोधित करते थे) की सियासत इसी मदरसे से चली थी और उत्तरोत्तर ऊपर उठती गयी।
हुकूमत में रहते हुए हुकूमत के गलत फैसले के बरखिलाफ हुकूमत से बगावत करना सियासित की कोई ‘चाल’ नहीं थी, सामाजिक सरोकार से उपजी एक सामान्य प्रक्रिया है। इसे जीने के लिए एक जज्बा चाहिए, दाढ़ी के पास वह जज्बा था। अब जब इस जज्बे की तलाश होगी तो लोग दाढ़ी के सामने नत खड़े मिलेंगे। अपने पूर्व प्रधान मंत्री को प्रणाम!
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