और आखिरकार कारोबार खबर की अकाल मौत हो गयी

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पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- की अगली कड़ी पेश है। यह उस दौर की बात है, जब श्री अश्क को प्रभात खबर समूह के एक प्रकाशन- कारोबार खबर (बिजनेस साप्ताहिक) को कोलकाता से निकालने की जिम्मेवारी सौंपी गयी थी।

सपना सभी देखते हैं, पर साकार सभी सपने नहीं होते। असफलता के ज्ञात-अज्ञात कारण और सहज-असहज स्थितियां अनायास उत्पन्न हो जाती हैं। कारोबार खबर के प्रकाशन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। इसकी उम्र दो साल की ही रही।

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बहरहाल, कारोबार खबर का कार्यालय जिस 14, प्रिंसेप स्ट्रीट, कोलकाता के पते वाली बिल्डिंग में था, उसके सारे दफ्तर शाम पांच-छह बजे तक बंद हो जाते थे। दरवान सबके निकलने के बाद गेट पर ताला लगाता और फिऱ दारू पीकर टुन्न हो जाता। प्रवेशांक के लिए सभी साथी तकरीबन रात 10 बजे दफ्तर में जमे रहे। पेस्टिंग हो जाने के बाद छपाई के लिए सारे पन्ने लेकर एक आदमी अगली सुबह जमशेदपुर जाने वाला था। प्रभात खबर के जमशेदपुर वाली मशीन पर उसकी छपाई का शिड्यूल बना था।

काम खत्म कर हम सभी नीचे उतरे  तो गेट के ग्रिल में ताला जड़ा था। हम लोगों ने दरवान को आवाज लगायी। उसका कहीं पता नहीं चल रहा था। काफी देर तक ताला खटखटाया। दो परेशानी एक साथ थी। एक तो किसी ने खाना नहीं खाया था और दूसरे साथ में वह लड़की भी थी, जिसने सरकारी विज्ञापन का इंतजाम कराने में मदद की थी। दिनभर की खटना ने सबको दुखी कर दिया। सभी दरवान जी-दरवान जी कह कर एक साथ पुकारने लगे। अंत में कहीं से दरवान जी प्रकट तो हुए, पर इस संदेह की नजरों के साथ कि इतनी रात को किसी लड़की को लेकर ये छोकरे क्या कर रहे हैं। उसने कुछ अनापशनाप कहा, तब तक मेरे साथियों में किसी ने उस पर हाथ चला दिया। मैं बीचबचाव करने गया तो दरवान का जवाबी घूंसा मेरे थोबड़े पर लगा। क्षण भर के लिए आंखों के सामने अंधेरा छा गया। यह देख मेरे साथियों ने उसकी इतनी धुनाई कर दी कि मामला पुलिस थाने तक पहुंचने की नौबत आ गयी। खैर, किसी तरह हम वहां से अपने-अपने घरों को निकल गये।

अगले दिन डर यह था कि कहीं उसने पुलिस में रपट तो नहीं लिखा दी। दूसरा डर यह पैदा हुआ कि कल का बदला वह कुछ और साथियों को लेकर न साध ले। इस डर के मारे आफिस न जाना भी कायरता कहलाती और यह कामकाज की दृष्टि से भी उचित नहीं लगता। इसलिए भीतर से सहमे, पर बाहर से दृढ़ता दिखाते हुए सबसे पहले मैं आफिस पहुंचा। इस बीच दरवान ने इसकी शिकायत उस बिल्डिंग में चलने वाले उषा मार्टिन के दूसरे दफ्तरों के लोगों से कर दी थी।

उषा मार्टिन के एक कर्मचारी थे सरकार बाबू। वे मेरे पास आये और कहा कि आप लोगों ने दरवान को मारा है। घूंसे की चोट से मेरी ठुड्डी पर सूजन आ गयी थी। खैरियत थी कि मैं तब भी चेहरे को दाढ़ी से ढंके रहता था, जो आज तक बरकरार है। मैंने सरकार बाबू से कहा कि उसे बुलाइए। वह आया और बड़ी साफगोई से बताया कि इन लोगों की मार से इतना दर्द हुआ कि दारू पीकर उसे राहत लेने की नौबत आ गयी। मैंने कहा कि तुमने मेरा चेहरा देखा और दाड़ी को इधर-उधर हटा कर दिखाया भी कि देखों तुम्हारे घूंसे की वजह से मुझे कितनी चोट पहुंची है। मौंने इसके साथ ही धौंस दिखाई कि यही दिखा कर मैं तुम्हें अभी हवालात भेजवा सकता हूं। यह सुनते ही उसके चेहरे से हवाई उड़ने लगी। सरकार बाबू को मैंने यह कह कर जाने के लिए कहा कि मैं इनसे खुद बात कर लेता हूं। वह चले गये तो मैंने कहा, मुझे पता है कि आपको चोट काफी आई है। जाकर इलाज कराइए। उसे बीस रुपये भी दिये।

धूमिल की कविता की वह पंक्ति मुझे बरबस याद आती है- दायें हाथ की नैतिकता से बायां हाथ इस कदर दबा होता है कि जीवन भर….धोने का काम वही करता है। वह मेरी बीस रुपये की नैतिकता से इस कदर दबा कि दो साल तक वहां से कारोबार खबर का प्रकाशन होता रहा और उसने हम लोगों के निकलने से पहले कभी गेट बंद नहीं किया। उल्टे वह सलामी दागता रहा। कभीकभार वह त्योहारों के मौके पर बख्शीश के लिए आता भी तो बड़े अदब से पेश आता।

कारोबार खबर का प्रकाशन दो साल तक जारी रहा। इसकी शुरुआत 1995 में तब हुई थी, जब शेयर मार्केट कुलाचें मार रहा था। हर्षद मेहता के शेयर घोटाले के ठीक पहले का वह वक्त था। जिस तेजी से शेयर बाजार का सेंसेक्स बढ़ रहा था, उससे यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि इतनी तेजी क्यों है और कभी यह थमेगी भी कि नहीं। अखबार की शुरुआत के कुछ ही महीनों बाद इस तेजी के रहस्य से पर्दा हट गया, जब हर्षद मेहता प्रकरण उजागर हुआ। उसके बाद बाजार के गिरने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो थमने का नाम नहीं ले रहा था। 1996 के अंत तक मुझे अहसास होने लगा था कि गिरावट का यह दौर लंबा चलेगा। इस अनुमान के पीछे शेयर मार्केट विशेषज्ञों के साथ मेरा उठना-बैठना था। अब लगने लगा कि मैंने साप्ताहिक से दैनिक करने का जो सपना देखा था, वह शायद अधूरा रह जाएगा और इसके चक्कर में मेरा करियर चौपट हो जाएगा।

एक दिन मैंने हरिवंश जी को कहा कि इसे बंद कर देना बेहतर होगा। इसलिए कि प्राइमरी मार्केट में नये इश्यू आने बंद हो गये थे। विज्ञापन की मूल योजना प्राइमरी मार्केट को ध्यान में ही रख कर बनायी थी। शेयर मार्केट में हजारों लोगों के पैसे डूब गये। बड़े-बड़े शेयर ब्रोकर बर्बाद हो गये। उन्हीं में से कोलकाता की एक कंपनी थी प्रुडेंशियल। वह कारोबार की विज्ञापनदाता कंपनी भी थी। कंपनी दीवालिया हो गयी। मेरी बात से हरिवंश जी शायद सहमत नहीं थे। उनका यह ड्रीम प्रोजक्ट था तो मेरा ब्रेन चाइल्ड। उन्होंने इस मुद्दे पर उषा मार्टिन और अन्य लोगों से विचार-विमर्श किया। उन लोगों ने भी मेरी सलाह को सही ठहराया। आखिरकार मई 1997 में इसे बंद करने का औपचारिक निर्णय हुआ।

बेटे की मौत का सदमा जिसने सहा हो, वही मेरी पीड़ा समझ सकता है। जिस दिन इसे बंद करने का निर्णय हुआ, उसके बाद अपने ब्रेन चाइल्ड को मौत से बचाने के लिए अनगिनत बार मैंने हनुमान चालीसा का पाठ किया होगा। दमदम कैंटोनमेंट स्थित अपने घर से आफिस पहुंचने के तकरीबन घंटे भर की यात्रा में मैं हनमान चालीसा ही पढ़ता कि शायद कोई करामात हो जाये। पर, विधि के विधान को कोई टाल सका है अब तक। अंततः अखबार को बंद करने की सूचना मुझे साथियों को दुखी मन से देनी पड़ी।                                   (कल पढ़ें- कंटेंट-प्रोफाइल ने कैसे किया कमाल)

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