- आशुतोष पांडेय
सईंया चभर-चभर गड़े ओरिचनवा ना (बेड के अंत वाला भाग जिसे गोड़थारी कहते हैं, जिधर सोते वक्त पैर रहता है, उसे ओरिचन कहते हैं)। ऑटो में यह गाना बज रहा था। आगे बैठा इसका चालक कानफोड़ू आवाज में बज रहे गाने, मुंह में पान बहार दबाकर आनंद ले रहा था। गांव में ट्रैक्टर जब चलता है, उसकी ध्वनि भी ध्वनि के मापक यंत्र आडियोमीटर को मात देती है। ट्रैक्टर के चलने की आवाज मानक डेसीबल को पीछे छोड़ते हुए अपना संगीत अलग से छेड़ती है, लेकिन ट्रैक्टर का ड्राइवर लगाई दीहीं चोलिया के हूक राजा जी बजाते हुए, स्वयं आनंदित होता है और दूसरों को आनंदित करने का भ्रम पाले हुए रहता है।
भोजपुरी गानों की सोंधी महक, अद्भूत मिठास, अनीवर्चनीय ताजगी और सुनते ही शरीर में स्फूर्ति जगा देने वाली तासीर अब कहां गुम है, किसी को पता नहीं। पटना से वैद्या बुलाई द, शारदा सिन्हा, कहे तोसे सजना, तोहरी सजनिया, अंगूरी में डसले बिया नगिनिया हो, ये सईंया। कहंवा तू गईलअ जिया कुंहुकाके, प्यार में देके तूहूं चकमा, एहो दगाबाज बलमा, गंगा किनारे मोरा गांव हो, घर पहुंचा द देवी मईया, खाईके मगहिया के पान, ये राजा हमरो जान लेब का। अब फिजां में भोजपुरी के गाने- ढुकता-चढ़ता, बथता-चोलिया, हूक, बटाम, पेटीकोट और ऐसे-ऐसे शब्द कि अश्लीलता जैसे भी जैसे शर्म के मारे कह रहे हों। बस करो, इस जिंदगी में जीवन को जानदार बना देने वाली भोजपुरी का यह हश्र ठीक नहीं है।
सिंधु घाटी सभ्यता में मरे हुए चूहों की राख से दांत साफ करने वाले गीत लेखकों से, जब इस मुद्दे पर बात कीजिये, तो समय की मांग को दोष देकर हड़प्पा काल के पुतले की तरह दांत चियार देते हैं। उनका जवाब आजादी के समय से अब तक गैरेज में खड़े पुराने टायर में फंसी हुई गिट्टी की तरह होता है, क्या करें, हमें तो यही लिखने को कहा जाता है। हां, यह जरूर है कि अगर उनसे यह पूछा जाये कि क्या यह गाने आप अपने परिवार में खड़ा होकर चिल्ला-चिल्लाकर गा सकते हैं ? तो उनका मुंह जैसे शट डाउन हो जाता है। भोजपुरी गानों के बोल और उनके भीतर के द्विअर्थी मतलब किसी को भी शर्मसार करने के लिए काफी हैं। सीधे-सीधे स्त्री देह को अपमानित करते यह गाने, गांवों में किसी को छेड़ने और किसी को सताने के लिए काफी हैं। इन्हीं गानों की किसी सुंदर सी धुन को कोई विदेशी अपनी आवाज में गा देता है, तो चैनल वाले गौरवान्वित होकर उसका गुणगान करने लगते हैं।
भोजपुरी का वह स्वर्णिम काल. अभी भी वह पीढ़ी जिंदा है, सुधीर कक्कड़ की औलादों, जरा ध्यान दो। विधवा विवाह पर अधारित एक फिल्म 1963 में आयी थी, ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढइबो’। इसे भोजपुरी का पहला फिल्म होने का गौरव हासिल है। इसमें चित्रगुप्त ने संगीत दिया था और लिविंग लिजेंड लता जी और मोहम्द रफी ने स्वर दिया था। शैलेंद्र का संगीत था। 1982 में ‘नदिया के पार’ ने भी आपार सफलता हासिल की, इस फिल्म के साथ गानों में मिठास और चुहूलबाजी पोर-पोर में भरी थी। फिल्म में कुत्सित और कुतार्किक गाने नहीं थे। फिल्म को लोगों ने पसंद किया। ‘नदिया के पार’ के बाद भोजपुरी फिल्मों और गानों पर काम होना बंद हो गया। बीच में कुछ लोक गायकों ने सुंदर भजन और ठुमरी के साथ पूर्वी गाकर लोगों के मन बहलाये, लेकिन स्थिति लगातार खराब हुई।
पैसा-पैसा और पैसा, इसी भोजपुरी भाषा का शोषण कर कमाते जा रहे हैं, कभी दिल से यह पुकार नहीं निकली कि यह समृद्ध और अपने पुराने गौरव को कैसे प्राप्त करे। शब्दों में बस चोली, पेटीकोट और अंगिया के साथ स्त्रियों के देह और अंगों का विश्लेषण करते गाने बनते रहे और तुम्हें सिर्फ और सिर्फ पैसा चाहिए था। पैसा पाने की लालसा में तुमने पतनशीलता की हद कर दी। कभी गौर से इन गानों को अपने पूरे परिवार के बीच बजाकर सुनना और देखना उन चेहरों को, जो तुम्हारे अपने हैं। उन चेहरों पर एक घृणा दिखेगी, एक तिरस्कार दिखेगा और एक विद्रोह की खींची हुई लकीर दिखेगी। क्योंकि, यह किसी को अच्छा नहीं लगता. डीजे की कर्कश आवाज में तुमने फूहड़ता की सीमा लांघ दी और स्त्री देह को ध्यान में रखकर नशे में झूमने लगे। इन गानों ने राह चलती बेटियों को शर्मिंदा करना शुरू कर दिया है। बचा हुआ काम गली चौराहे के पान दुकान, गुमटियां, बस, ट्रक और ट्रैक्टर वाले ने पूरा कर दिया है। भोजपुरी गाने अब कामुकता और अश्लीलता से ऊपर उठकर कानों में पिघले हुए शीशे की तरह प्रवेश कर रहे हैं। शर्म करों……अश्लीलता से पैदा हुए बेशर्म और कुत्सित लेखकों, गायकों, निर्माताओं और निर्देशकों साथ में ऐसे दर्शकों भी। ध्यान रखो, भाभी द्वारा देवर को काटी गयी चिकोटी अब चीत्कार में बदल गयी है……। (फेसबुक वाल से साभार)
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