पटना। शिवानंद तिवारी ने दबी जुबान नरेंद्र मोदी की तारीफ की है। RJD के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने फेसबुक पर लिखा है कि पीएम ने अच्छी बातें कही हैं। लोकसभा का पिछला चुनाव जीतने के बाद जब नरेंद्र भाई मोदी पहली मर्तबा संसद भवन में प्रवेश कर रहे थे, उन्होंने उसके चौखट पर माथा टेका था। इस मर्तबा उन्होंने संविधान की किताब पर अपना सर झुकाया। प्रधानमंत्री जी ने राजग के सांसदों को संबोधित करते हुए कुछ अच्छी बातें कहीं हैं। अगर उन पर अमल होता है तो यह देश के लिए बहुत शुभ होगा।
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अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि ‘वाणी से, बर्ताव से और आचरण से आपको अपने को बदलना होगा। दूसरी महत्वपूर्ण बात जो बात उन्होंने कही, वह यह कि ‘अल्पसंख्यकों के मन में डर बैठा कर उनको अलग-थलग किया गया है, उन्हें वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। उनके मन से उस डर को निकाल कर सबको साथ लेकर चलना होगा।
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गांधी जी कहते थे कि ‘हमारे मस्तिष्क में असंख्य निष्क्रिय विचार हो सकते हैं। लेकिन वे निर्जीव अंडों की तरह होते हैं। उनका कोई मूल्य नहीं होता। लेकिन एक ही सक्रिय विचार यदि हृदय की गहराई से निकले, जो मूलत: शुद्ध हो और प्राण की संपूर्ण शक्ति से पूर्ण हो तो वह सक्रिय और गतिशील बनकर इतिहास का निर्माण कर सकता है।
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नरेंद्र भाई मोदी जी ने अपने भाषण में जो विचार व्यक्त किए हैं, वे सक्रिय हैं या निष्क्रिय! लोहिया इनके एवज में सगुण और निर्गुण शब्द का इस्तेमाल करते थे। भारतीय राजनीति में निष्क्रिय या निर्गुण बातें ही ज़्यादा होती हैं। प्रधानमंत्री जी के भाषण को अगर उनके पिछले कार्यकाल की पृष्ठभूमि में देखा जाए तो वे निर्गुण लगते हैं। लेकिन जब जगे, तभी सवेरा। जो उन्होने कहा, उसको सगुण रूप दिया जा रहा है या नहीं, इसको परखने की कसौटी क्या होगी!
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पहली कसौटी प्रज्ञा ठाकुर को लेकर बनाई जा सकती है। क्योंकि प्रज्ञा ठाकुर ने नाथूराम गोड्से और महात्मा गांधी के संदर्भ में जो बयान दिया था, उसके लिए प्रधानमंत्री जी ने ‘घृणा’ जैसे कठोर शब्द का इस्तेमाल किया था। उन्होंने कहा था कि उस बयान से उनको घृणा हुई है और प्रज्ञा ठाकुर को वे इस बयान के लिए कभी माफ नहीं करेंगे। इस बीच चुनाव जीतकर प्रज्ञा संसद में भी आ चुकी हैं। उनको लेकर प्रधानमंत्री जी अब क्या करेंगे? क्या अपनी बात को सगुण रूप देने के लिए पार्टी से प्रज्ञा ठाकुर को अलग करने की दृढ़ता दिखा पाएँगे? प्रधानमंत्री जी का भाषण निष्क्रिय या निर्गुण था या सचमुच उसको वे सक्रिय या सगुण रूप देना चाहते हैं, यह जाँचने के लिए एक कसौटी यह भी हो सकती है।
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दूसरी कसौटी अल्पसंख्यकों के मन से डर को निकालने के संदर्भ में बनाई जा सकती है। डर वाली बात सही है। डर का लाभ उठाकर वोट बैंक के रूप में उनका इस्तेमाल किया जाता है, प्रधानमंत्री जी के इस आरोप में भी दम है। लेकिन यह डर किन से है! कौन लोग उनको डरा रहे हैं! अपने संबोधन में उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया है।
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मुझे लगता है कि अल्पसंख्यकों के मन में डर की बड़ी वजह समाज में उनके विरूद्ध फैलाई जा रही नफ़रत से है। कौन फैला रहा है नफरत? क्या प्रधानमंत्री जी को यह बतलाने की ज़रूरत है! हद तो यह है कि कब्र से निकाल कर इनकी महिलाओं के साथ बलात्कार करेंगे, यहाँ तक कहा गया है! किसने यह कहा है, प्रधानमंत्री जी को यह भी बताने की जरूरत है क्या? दफन के लिए तीन गज ज़मीन चाहिए तो वंदेमातरम कहना होगा! प्रधानमंत्री जी के मंत्रिमंडल में शामिल एक सदस्य ऐसा कहते हैं। ऐसा कहने का साहस इनमें कहाँ से आता है! ऐसा इसलिए कि उनको लगता है कि प्रधानमंत्री जी ऐसी भाषा पसंद करते हैं। वे ग़लत भी नहीं हैं। ऐसा ही बोलते मंत्री बन गए। दंगे के आरोपी भी मंत्रिमंडल में शामिल हैं।
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इसलिए प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में परसों जो कुछ कहा है, उसके प्रति वे वाकई गंभीर हैं और उनको सक्रिय और सगुण रूप देना चाहते हैं तो उसकी शुरूआत दो छोटे कदमों से वे कर सकते हैं। पहला, प्रज्ञा ठाकुर को अपने दल से बाहर निकाल कर और दूसरा अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगलने वाले सदस्यों को मंत्रिमंडल से बाहर रखकर। ये दो छोटे कदम बड़ा संदेश देंगे और प्रधानमंत्री जी अल्पसंख्यकों को वोट बैंक से मुक्त करने की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। इसी रास्ते उस ओर भी बढ़ा जा सकता है, जिसकी ओर चलने के लिए हमारा संविधान निदेश देता है।
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