पत्रकारिता के एक सूर्य का अस्त हो जाना यानी राजनाथ सिंह का जाना। उनके निधन पर पत्रकारिता से सरोकार रखने वाले दुखी हैं तो एक बड़ा पाठक वर्ग भी। कुछ तो ऐसी बात रही होगी उनमें, जो एक रिक्तता महसूसस करने को विवश कर रही है। स्तंभकार एवं वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी ने उनकी कमी को कुछ इस रूप में महसूस किया हैः
- उमेश चतुर्वेदी
अरसे से मन उचाट रहता है। इसका असर अपने ऊर्जा स्तर पर पड़ा है। लिखने की तमाम चाहतें होने के बावजूद लिखना थमता जा रहा है। दो दिन पहले वरिष्ठ पत्रकार, स्वतंत्र भारत अखबार के स्वर्णिम दिनों में संपादक रहे राजनाथ सिंह सूर्य का निधन हो गया। उनसे अपना भी कुछ नाता रहा। उनसे सीखा भी हूं। अव्वल तो उनके निधन की खबर सुनते-पढ़ते ही अपना भावोद्रेक उद्घाटित कर देना था, लेकिन उचाटपन की वजह से नहीं कर पाया।
राजनाथ सिंह सूर्य को पढ़ता तो अरसे से था, लेकिन प्रत्यक्ष परिचय हुआ साल 1999 में। इसके माध्यम बने अमर उजाला के तत्कालीन दिल्ली ब्यूरो प्रमुख Prabal Maitra जी। संसद का शीत सत्र चल रहा था। संसद भवन की पहली मंजिल पर Tea Board India की एक चाय की दुकान है। सस्ती दर पर वहां चाय मिलती है। इसलिए क्या गर्मी, क्या बरसात, संसद का सत्र चल रहा हो तो खाली वक्त में या गप्प मारने के लिए संसद कवर करने वाले पत्रकार वहां जुटे रहते हैं।
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वहीं पर मैं प्रबाल जी के साथ चाय पी रहा था। तभी राजनाथ जी वहां आए। राजनाथ जी को मैं पहचानता तो था, लेकिन उनसे मिला नहीं था। तब राजनाथ जी भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा में सांसद थे। राजनाथ जी को देखते ही प्रबाल जी ने नमस्कार-पाती की और उन्हें भी चाय पर आमंत्रित कर लिया। चाय पीते-पीते ही उन्होंने मेरा भी राजनाथ जी से परिचय कराया। राजनाथ जी और प्रबाल जी में बातें होती रहीं, निजी से लेकर राजनीतिक तक। मैं ज्यादातर वक्त श्रोता ही रहा। फिर उन्होंने मेरा भी परिचय लिया। कहां से हूं और कहां कार्य कर रहा हूं, इसकी जानकारी ली।
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तब पत्रकारिता को लेकर अपने अंदर एक जुनून था। इसलिए उनसे पूछ बैठा- अच्छा संवाददाता बनने के लिए क्या करना चाहिए। यह सवाल सुनकर वे मुस्कुराये। फिर उन्होंने जो जवाब दिया, उसे मैंने जिंदगीभर के लिए गांठ बांधकर रख लिया। उसे मैंने गुरूमंत्र मान लिया। उस दिन उन्होंने कहा था- “अगर आपको पत्रकारिता करनी हो तो कैबिनेट के उस मंत्री से गहरा संपर्क रखिए, जो सबसे कमजोर हो, जिसकी सबसे कम सुनी जाती हो, जिसके पास महत्वपूर्ण विभाग ना हो। वह कमजोर मंत्री चिढ़ा रहता है, इसलिए कैबिनेट की बैठकों में, फैसले लेते वक्त जो भी खींचतान हुई रहती है, उसे वह उगल देता है। इससे आपको खबर मिलती रहती है।” उन्होंने आगे जोड़ा।
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राजनाथ जी ने उस दिन एक और सीख दी थी, “अफसर, नेता या मंत्री के यहां जाओ तो उससे भले ही आपका व्यवहार बहुत अच्छा ना हो, लेकिन उसके चपरासी और क्लर्क से अच्छा व्यवहार रखो। उसे नमस्ते करने में भी आपको नहीं हिचकना चाहिए। कई बार ऐसा भी होता है कि ताकतवर नेता, मंत्री और अधिकारी के पास होने के बावजूद उनके वाजिब काम नहीं हो पाते तो उन कामों को आपसे बन पड़े तो करवा दिया करो। इसका असर यह होगा कि वह आपका मुरीद रहेगा। इसके चलते वह उस नेता, अफसर या मंत्री की हर गतिविधि और अंदरखाने तक की जानकारी देता रहेगा। क्योंकि उसकी पहुंच गुप्त बैठकों तक होती है, जहां उसे पानी और चाय लेकर जाना होता है और वह आते-जाते बहुत सारी बातें सुन लेता है।” राजनाथ जी ने आगे यह भी जोड़ा था।
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उन्होंने एक और बात कही थी, “पत्रकारिता के अलावा कुछ और करना है तो बड़े नेताओं के भक्त और राजदार जरूर बन सकते हैं।” जितने दिन रिपोर्टिंग कर सका, उतने दिन तक मैंने राजनाथ जी की सिखाई इस बात को गांठ बांध कर रखा और उसका मुझे बतौर रिपोर्टर फायदा भी मिला।
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राजनाथ जी गाहे-बगाहे मिलते भी रहे। एक बार लखनऊ गया। मैं एयरपोर्ट से बाहर निकल रहा था और वे अंदर आ रहे थे। मैंने उन्हें नहीं देखा, लेकिन उन्होंने मुझे देख लिया था। थोड़ी तेज आवाज में मुझे पुकारकर अपने पास बुलाया था और हाल-चाल पूछा था।
आज के कथित बड़े पत्रकारों का अभिमानी चेहरा देखता हूं तो राजनाथ सिंह जी जैसे वरिष्ठ पत्रकारों का व्यवहार याद आता है। उस पीढ़ी के लोगों में अपनी वैचारिकता के प्रति आग्रह भले ही था, लेकिन व्यावहारिकता को वह नहीं भूल पाई थी। व्यक्ति के सम्मान का खयाल वह पीढ़ी रखती रही है। हमारा सौभाग्य है कि उस पीढ़ी के अब भी कई शीर्ष पत्रकार हमारे बीच हैं। वैचारिकता के खांचे में बंधी आज पत्रकारिता खेमेबाजी और निजी हद तक दुश्मनी निभाने का जब जरिया बन गई है, ऐसे दौर में निजी संबंध निभाने, पत्रकारिता में वस्तुनिष्ठता के साथ ही अपनी वैचारिकता के प्रति आग्रही रहे राजनाथ सिंह जी की याद आती रहेगी।
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