Sushant Singh मामले में CBI की अग्निपरीक्षा होगी। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले की जांच अब सीबीआई (CBI) करेगी तो यह सवाल वाजिब हो जाता है। किसी भी राज्य में दर्ज इससे संबंधित मामले सीबीआई के पास जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को प्रथमदृष्टया बिहार सरकार की जीत और महाराष्ट्र सरकार की हार के रूप में देखा जा रहा है। इससे उत्साहित होने वालों को कुछ वैसे मामलों पर भी गौर करने की जरूरत है, जो पिछले कुछ वर्षों में सीबीआई को सुपुर्द किए गए थे और उनके परिणाम की प्रतीक्षा में बरसों बीत जाने के बाद नतीजा ढाक के तीन पात की तरह रहा।
उदाहरण और नमूने के तौर पर बिहार के कभी चर्चा में रहे नवारुणा प्रकरण को लिया जा सकता है। यह मामला भी सीबीआई को सुपुर्द किया गया था। सीबीआई ने वर्षों तक जांच के बाद इस मामले में कोई परिणाम नहीं दिया। इससे पहले ललित मिश्रा हत्याकांड की जांच भी सीबीआई को सौंपी गई थी, लेकिन अंततः क्या हुआ, यह सबको मालूम है।
बिहार से बाहर की बात करें तो आरुषि हत्याकांड की परतेम उधेड़ने और अभियुक्तों को घेरने में सीबीआई नाकाम ही साबित हुई है। इसलिए यह उम्मीद करना कि सीबीआई इस मामले का समाधान जन आकांक्षाओं के अनुरूप कर पाएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं। सीबीआई जांच के शर्तिया नतीजा निकलने की उम्मीद पालने वाले लोगों को पहले से सीबीआई को सुपुर्द तीन मामलों के बारे में जानना जरूरी है।
बिहार का ही एक बहुचर्चित बॉबी हत्याकांड सीबीआई को सुपुर्द हुआ था। अब तो लोग उस मामले को भूल ही चुके हैं। उसके बारे में भी जान लेना लेना चाहिए कि उसका क्या हस्र हुआ। दरअसल सीबीआई की जांच पर संदेह का अवसर वे तमाम मामले देते हैं, जिनमें राज्य सरकारों की पुलिस ने अपने स्तर से तकरीबन जांच पूरी कर ली थी और अभियुक्तों के करीब पहुंचने को थी, तभी सीबीआई को उन्हें सौंप दिया गया। सीबीआई के पास जाते ही उन मामलों का पटाक्षेप हो गया।
जिस शीर्ष अदलात ने सुशांत सिंह राजपूत मामले की जांच सीबीआई से कराने की इजाजत दी है, कभी उसी अदालत ने सीबीआई के बारे में यह टिप्पणी की थी- सीबीआई पिंजरे में बंद तोता, उसके कई मालिक। कोयला ब्लाक आवंटन घोटाला मामले में सीबीआई की प्रगति रिपोर्ट में सरकार के हस्तक्षेप पर सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी।
इसके बावजूद सुशांत सिंह राजपूत के फैंस और उनके परिवार को मामले की जांच सीबीआई से कराने की सिफारिश करने वाली सरकार पर पूरा भरोसा है। उनका विश्वास है कि सीबीआई जांच से सच्चाई सामने आ ही जाएगी। सच तो यह है कि जिस सरकार ने सीबीआई जांच की सिफारिश की, उसकी मंशा सच्चाई तक पहुंचने की रही या न रही, बल्कि बिहार में 2 महीने बाद होने वाले चुनाव में इसे भुनाने का उसे अवसर जरूर मिल गया।
ऐसा सोचने या कहने का अवसर इसलिए बनता है कि सीबीआई से जांच कराने की सिफारिश का फैसला जिस सरकार ने लिया, उसने उन दिनों में ऐसी तत्परता क्यों नहीं दिखाई, जब सुशांत सिंह का परिवार या उनके चहेते निष्पक्ष जांच के लिए सीबीआई जैसी एजेंसी की मांग कर रहे थे। सुशांत की मौत के काफी समय बाद खास राजनीतिक दल के नेता उनके परिवार से मिलने गए। डीजीपी उनसे मिलने गए और उनके पिता ने उसके बाद एफ आई आर दर्ज करायी। उसके बाद बिहार की पुलिस सक्रिय हुई और उसने जांच के लिए त्वरित कार्रवाई करते हुए अपने वरिष्ठ अफसरों को मुंबई भेजा।
बिहार की यह वही पुलिस है, जिसके पास आज तक इस बात के पुख्ता प्रमाण नहीं जुट पाए कि थानों के मालखानों में जमा हजारों-लाखों लीटर शराब चूहे कैसे पी गए या फिर मुजफ्फरपुर नारी निकेतन में 40 बच्चियों के साथ दुराचार की घटनाएं होती रहीं और उसे कानोकान कोई भनक नहीं मिली। बिहार में सृजन जैसा अरबों रुपए का घोटाला हो गया, उसकी भनक भी बिहार पुलिस को नहीं मिली। छोटे-मोटे अपराधों की बात तो छोड़ ही देनी चाहिए।
दरअसल जो लोग सुशांत मर्डर केस में बिहार सरकार की सहृदयता, तत्परता या सीबीआई जांच की सिफारिश को लेकर इतरा रहे हैं, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि मौजूदा वक्त चुनाव का है। चुनाव के दौरान सरकारें ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर अत्यधिक सक्रिय हो जाती हैं। जन भावनाओं का बेइंतहा कद्रदां बन जाती हैं, ताकि वे अपने हित में इन्हें भुना सकें। चुनाव बीत जाने के बाद कौन किसे पूछता है, सक्रियता कितनी रहती है, यह बताने की जरूरत नहीं। समझदार लोग इस बात को भलीभांति समझते हैं। इसलिए जब भी किसी मामले की सीबीआई जांच की सिफारिश की जाती है, अगर कोर्ट की निगरानी उस पर नहीं हुई तो मामला किस ठंडे बस्ते में चला जाता है या राजनीतिक नफा-नुकसान के अनुसार उसका कैसा इस्तेमाल होता है, शायद ही कोई इससे अनभिज्ञ होगा।
बहरहाल इतना तो साफ हो ही गया है कि सुशांत मर्डर केस की जांच सीबीआई को सौंपने का फैसला बिहार सरकार का उचित निर्णय था। इस फैसले के बारे में प्रथमदृष्टया अभियुक्त के तौर पर सामने आ रही रिया के वकील ने भी आरंभिक दिनों में सीबीआई जांच की मांग की थी, लेकिन जब बिहार पुलिस ने सुशांत के पिता के एफआईआर के आधार पर जांच शुरू की तो यह बात महाराष्ट्र पुलिस को नागवार गुजरी। आमतौर पर घटना जहां होती है, वहीं की पुलिस जांच करती है। अगर दूसरे राज्यों में इस बारे में कोई शिकायत दर्ज होती है तो जिस राज्य की पुलिस जांच करती है, वह मामला उसे सुपुर्द कर दिया जाता है। महाराष्ट्र पुलिस का तर्क भी यही था और इसी आधार पर उसने बिहार पुलिस की जांच को रोका था।
सुशांत सिंह राजपूत के परिवारी, उनके निकटवर्ती और चहेतों को यह तात्कालिक खुशी का अवसर है कि जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपने के बिहार सरकार के फैसले का कोर्ट ने समर्थन कर दिया है, लेकिन इससे संतुष्ट होने से पहले अतीत के उन पन्नों पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि सीबीआई जांच का मतलब ठंडे बस्ते में मामले को चला जाना भी होता है।
महाजनो येन गतः स पंथाः
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर इस मामले पर कहते हैः सुशांत सिंह राजपूत मामले में रिपब्लिक और टाइम्स नाऊ टी.वी चैनलों ने अब तक जो रहस्योद्घाटन किए हैं, उनसे यह साफ है कि किसी बड़ी हस्ती को बचाने की महाराष्ट्र सरकार-पुलिस कोशिश कर रही है। पर, इसमें आश्चर्य की कोई बात ही नहीं। आजादी के तत्काल बाद से ही प्रभावशाली सत्ताधारियों को बचाने की सफल कोशिश होती ही रही है। बचाने के कुछ ही नमूने पेश हैं। जिस तरह पकते चावल के कुछ ही दाने से ही स्थिति का पता चल जाता है।
पचास का दशकः एक केंद्रीय मंत्री के पुत्र ने एक व्यक्ति की हत्या कर दी। उच्चस्तरीय प्रयास से उस आरोपी को जमानत दिला कर विदेश भेज दिया गया था।
साठ का दशकः प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ताशकंद में रहस्यमय परिस्थिति में 1966 में मौत हो गई। उनका न तो पोस्टमार्टम कराया गया और न ही कोई जांच। संबंधित कागजात-सबूत भी गायब हो गए। आज भी अनेक लोग उस मौत के रहस्य को लेकर यदा कदा तरह-तरह की बातें करते रहते हैं।
सत्तर का दशकः केंद्रीय रेल मंत्री ललित नारायाण मिश्र की 1975 में समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर हत्या कर दी गई। बिहार पुलिस के कर्तव्यनिष्ठ एस.पी. डी.पी. ओझा ने
असली हत्यारे को पकड़कर दफा 164 में स्वीकारोक्ति बयान भी करवा दिया। पर अचानक सी.बी.आई. के निदेशक ने बिहार पहुंच कर सारा कुछ उलट दिया। ललित बाबू के भाई डा. जगन्नाथ मिश्र और पुत्र विजय कुमार मिश्र ने कहा कि जिन लोगों को इस केस में सजा दिलवाई गई, उनसे ललित बाबू को कोई दुश्मनी नहीं थी। उनके एक परिजन ने तो मुझसे यह भी कहा था कि एक अत्यंत बड़ी हस्ती ने ललित बाबू को हत्या करवा दी।
अस्सी का दशकः 1983 में चर्चित बाबी हत्याकांड पटना में भी यही हुआ। असली गुनहगार को बचा लिया गया। उच्चस्तरीय दबाव में सी.बी.आई. ने हत्या के मामले को आत्महत्या में बदल दिया।
बाद के दशकों यानी राजनीति के कलियुग के बारे में कम कहना और अधिक समझना बेहतर होगा। काश! पचास के दशक वाले हत्याकांड में गुनहगार को सजा मिलने की शुरूआत हो गई होती तो आज सुशांत मामले में गुनहगारों को बचाने के लिए जो बेशर्मी दिखाई जा रही है, उसकी हिम्मत किसी को नहीं होती।