- सुरेंद्र किशोर
आपातकाल-पीड़ित लोगबाग हर साल इमरजेंसी की वर्षगांठ मनाते हैं। मनाना जरूरी भी है। क्योंकि 25 जून 1975 को इमरजेंसी लगाकर पूरे देश को एक बड़े जेलखाना में बदल दिया गया था। 23 मार्च 1977 को ही इसे समाप्त किया जा सका था, जब लोकसभा के आम चुनाव के बाद मोरारजी देसाई की सरकार बनी। जिन्होंने आपातकाल (इमरजेंसी) लगाया, वे सिर्फ एक व्यक्ति नहीं थे, बल्कि वे राजनीति की एक खास प्रवृति का प्रतिनिधित्व करते थे। ऐसे लोग आज भी हैं।
राजनीति में आज भी जहां-तहां फैले ऐसे नेताओं व अन्य क्षेत्रों के ताकतवर लोगों से देश को सावधान करना जरुरी है। आज के ‘आपातकाल’ का एक लक्षण प्रस्तुत है। जातीय-सांप्रदायिक वोट बैंक बना लो। सत्ता हासिल कर लो। उसके बाद बेलगाम अपराध, भीषण भ्रष्टाचार और वंशवाद-परिवारवाद-जातिवाद का नंगा नाच करो। क्या इसे लोकतंत्र कहेंगे, जिसकी कल्पना स्वतंत्रता सेनानियों ने की थी? हर साल आपातकाल विरोधी दिवस मनाना और ऐसे लोगों व प्रवृतियों से लोगों को सावधान करना भी जरूरी है।
आज भी यदा कदा कुछ लोग लेख लिखकर आपातकाल का समर्थन करते रहते हैं। इसके समर्थन में कुछ किताबें भी लिखी जा चुकी हैं। आपातकाल में इंदिरा सरकार ने जयप्रकाश नारायण सहित अपने एक लाख राजनीतिक विरोधियों को देश के विभिन्न जेलों में ठूंस दिया था। आपातकाल में मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था। कड़ा व अभूतपूर्व प्रेस सेंसरशिप लगा दिया गया था। यहां तक कि आम जनता के जीने का अधिकार भी छीन लिया गया था।
आपातकाल में अटार्नी जनरल नीरेन डे ने तब सुप्रीम कोर्ट में यह स्वीकार भी किया था कि जीने का अधिकार स्थगित है। उन्होंने कहा था कि यदि स्टेट आज किसी की जान भी ले ले तो भी उसके खिलाफ कोई व्यक्ति कोर्ट की शरण नहीं ले सकता। क्योंकि ऐसे मामलों को सुनने के कोर्ट के अधिकार को स्थगित कर दिया गया है। नीरेन डे ने आपातकाल में जो कुछ कहा, वैसा अंग्रेजों के राज में भी यहां नहीं हुआ था। विदेशियों के शासन काल में भी जनता को कोर्ट में जाने की छूट थी।
आपातकाल में अपना एकछत्र शासन कायम करने के लिए इंदिरा गांधी ने कुछ संविधान संशोधन करवाये थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह पर राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने 27 जून 1975 को एक आदेश जारी कर मौलिक अधिकारों के उलंघन के खिलाफ कोर्ट जाने के नागरिकों के संवैधानिक अधिकार को स्थगित कर दिया था। इंदिरा सरकार ने संसद से संविधान का 38 वां संशोधन प्रस्ताव भी पास करवा लिया। इस संशोधन के जरिये राष्ट्रपति की उस अधिसूचना के न्यायिक पुनरीक्षण का अधिकार भी छीन लिया गया, जिस अधिसूचना के जरिए मौलिक अधिकारों को समाप्त किया गया था।
इंदिरा सरकार इतने ही पर नहीं रुकी। अगस्त, 1975 में संविधान का 39 वां संशोधन किया गया, जिसके तहत राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और स्पीकर के खिलाफ दायर चुनाव याचिकाओं पर विचार करने का न्यायालयों के अधिकार को खत्म कर दिया गया। साथ ही, यह भी प्रावधान किया गया कि इन चारों पदों के बारे में किसी अदालत ने कोई निर्णय दिये हों तो वे निर्णय भी अब रद्द माने जाएंगे। याद रहे कि 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राय बरेली से इंदिरा गांधी के चुनाव को रद कर दिया था। उन्हें छह साल के लिए चुनाव लड़ने पर भी रोक लगा दी गई थी।
समाजवादी नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर यह निर्णय आया था। 1971 में राज नारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ राय बरेली लोकसभा क्षेत्र में चुनाव लड़ा था। इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ इंदिरा गांधी की ओर से सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई थी। श्रीमती गांधी के वकील थे पूर्व कानून मंत्री एके सेन। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से यह गुजारिश की कि चूंकि 39 वां संविधान संशोधन विधेयक पास हो चुका है, इसलिए श्रीमती गांधी की अपील को स्वीकार कर लिया जाना चाहिए और राजनारायण की प्रति याचिका को खारिज कर दिया जाना चाहिए। राजनारायण के वकील शांति भूषण ने केशवानंद भारती मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण जजमेंट का जिक्र किया।
केशवानंद भारती के मामले में 1973 में ही सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि संसद ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती, जो संविधान के मूल ढांचे को बिगाड़ता हो। पर एक व्यक्ति की गद्दी बचाने के लिए किये गये 39 वें संशोधन के जरिए मूल ढांचे को बिगाड़ दिया गया था। पर सुप्रीम कोर्ट ने शांतिभूषण की दलील नहीं मानी। राजनारायण की याचिका खारिज कर दी गई। याद रहे कि इंदिरा गांधी अपनी गद्दी पर बरकरार तभी रह सकती थीं, जब वे किसी न किसी उपाय से इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय को निरर्थक कर दें। यही हुआ भी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय के बाद जन प्रतिनिधित्व कानून की संबंधित धाराओं में भी परिवर्तन कर दिया गया था।
सन् 1971 में हुए लोकसभा चुनाव में एक सरकारी सेवक यशपाल कपूर इंदिरा गांधी के चुनाव प्रभारी थे। कपूर इंदिरा गांधी के चुनाव एजेंट थे। सरकारी सेवा से इस्तीफा दिए बिना और उस इस्तीफे को मंजूर कराए बिना कोई व्यक्ति चुनाव एजेंट नहीं हो सकता था। रायबरेली में स्थानीय प्रशासन ने इंदिरा गांधी की चुनाव सभा के लिए सरकारी खर्चे पर मंच तैयार किया था। इन दोनों मामलों को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने चुनाव कदाचार माना और इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया।
आपातकाल में जन प्रतिनिधित्व कानून में यह परिवर्तन कर दिया गया कि सरकारी कर्मी का इस्तीफा सरकारी गजट में प्रकाशित हो जाना काफी है, इस्तीफा मंजूर करवा लेना जरूरी नहीं है। किसी सरकार के लिए पिछली तारीख के सरकारी गजट में कुछ भी छपवा देना आसान काम है। गजट का प्रकाशन अक्सर लेट चलता है। यशपाल कपूर का इस्तीफा जनवरी, 1971 के गजट में छपवा दिया गया। सरकारी मदद से चुनावी सभा मंच बनाने के मामले में भी कानून में इस तरह से संशोधन कर दिया गया, ताकि इंदिरा गांधी के खिलाफ दिया गया इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय निष्प्रभावी हो जाए। हुआ भी।
आपातकाल के दौरान किये गये संविधान संशोधनों में 42 वें संशोधन के जरिए इंदिरा शासन ने इस देश के लोकतंत्र को अस्थायी रूप से ही, पर उसे पूरी तरह मटियामेट कर दिया। इस संशोधन के जरिए यह संवैधानिक प्रावधान किया गया कि संविधान को संशोधित करने का संसद का अधिकार असीमित है। संसद संविधान में संशोधन कर सकती है। उसमें कुछ जोड़ सकती है तथा किसी प्रावधान को हटा भी सकती है। संसद के इस कदम को किसी कोर्ट में चुनौती भी नहीं दी सकती है। शुक्र है कि 1977 के आम चुनाव के बाद केंद्र में मोरारजी देसाई की सरकार बन गई और उसने आपातकाल में संविधान व कानून के साथ की गई कई ज्यादतियों को बारी-बारी से रद कर दिया।
आपातकाल के अपने गलत निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में पलट दिया। इधर कई साल बाद 2011 में सुप्रीम कोर्ट की खंड पीठ ने कहा कि 1976 में इस अदालत द्वारा दिया गया एक फैसला सही नहीं था। फैसला नागरिकों के मौलिक अधिकार के हनन को लेकर था। भारत सरकार ने 1975 में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को समाप्त कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने भी आपातकाल में उस मामले में सरकार का समर्थन किया था। पर जनवरी, 2011 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यामूर्ति एके गांगुली की खंडपीठ ने कहा कि मौलिक अधिकारों के निलंबन को बरकरार रखने का इस अदालत का तब का फैसला सही नहीं था।
कमजोर राजनीतिक नेतृत्व, भ्रष्टाचार, कमजोर अर्थव्यवस्था और राजनीतिक अस्थिरता ऐसे कुछ कारण हैं, जब किसी देश में कोई तानाशाह अपनी जड़ें जमाता है। कहीं कोई तानाशाह पैदा न हो जाए, इसलिए पिछली तानाशाही की कहानियों को एक बार फिर याद करके उन्हें नई पीढ़ी तक पहंचाया जाना चाहिए।
(लेखक सुरेंद्र किशोर वरिष्ठ पत्रकार हैं और आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
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