एक स्वामी जो मेरा कभी संपादक हुआ करता था यानी माधवकांत मिश्र

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भगवा वस्त्रधारी माधवकांत मिश्र के साथ नागेंद्र प्रताप
भगवा वस्त्रधारी माधवकांत मिश्र के साथ नागेंद्र प्रताप
  • नागेंद्र प्रताप

एक ऐसा स्वामी जो मेरा कभी सम्पादक हुआ करता था यानी माधवकांत मिश्र। वह कोई और नहीं, बल्कि अपने जमाने के मशहूर संपादक माधवकांत मिश्र हैं। 1984 का वह ऐसा दौर था, जब मेरे सपने में भी लखनऊ छोड़ने जैसी बात नहीं आई थी। ‘नवजीवन’ से होते हुए ‘दैनिक जागरण’ में आ चुका था और हिंदी पत्रकारिता के ऐसे मुकाम पर था कि जिसकी चर्चा दूर-दूर तक हो रही थी (उस दौर के लखनउवा पत्रकार मित्र ‘एक और अक्टूबर क्रांति’ के उस दौर की तस्दीक करेंगे)। ऐसे में एक दिन अचानक माधवकांत मिस्र आए, एक-दो सिटिंग में बतियाए, फिर हम चार लोगों को लेकर पटना चले गए (इस सब में बमुश्किल पन्द्रह-बीस दिन लगे होंगे)। हम चार यानी, मेरे अलावा अशोक रजनीकर, ज्ञानेंद्र नाथ और सुकीर्ति श्रीवास्तव। हम चारों ही जागरण में थे (या शायद रजनीकर जी कुछ दिन पहले अमृत प्रभात चले गए थे)। मुझे 31 अक्टूबर ’84 वाली ‘पंजाब मेल’ से पटना जाना था, लेकिन उसी दिन इंदिरा जी की हत्या और उससे उपजी अस्थिरता के कारण यह टल गया और फिर मैं नौ नवम्बर की रात ‘पंजाब मेल’ से पटना पहुंचा था। बाकी तीनों साथी मेरी ‘सब कुछ सकारात्मक’ होने की रिपोर्ट मिलने के बाद, बाद में आये। यह बिहार की राजधानी पटना से एक नये अखबार ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ की लांचिंग का मिशन था।

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1 जनवरी 1985 को ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ की लांचिंग हुई थी, जेपी की ऐतिहासिक स्मृतियां सजोये कदमकुआं इलाके में नाला रोड पर स्थित दफ्तर से। कहना न होगा कि यह बिहार की हिंदी पत्रकारिता का टर्निंग पॉइंट भी था। इसकी विस्तार से चर्चा फिर कभी। माधवकांत मिश्र इसके सम्पादक थे।

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लंबे समय बाद उन्हीं माधवकांत जी से वेस्ट पटेल नगर स्थित उनके घर पर मिलना हुआ। 2015 की एक शाम मेरे बनारस वाले ‘हिंदुस्तान’ के दफ्तर में हुई उस मुलाकात को छोड़ दें तो यह मिलना 32-33 साल बाद हुआ। घर पर पूरी फुरसत में सपरिवार हुई मुलाकात (हालाँकि इस दौरान टेलीफोन सम्पर्क हमारा कभी नहीं टूटा)। तमाम यादें ताजा हुईं। इन यादों में कुछ नये पन्ने भी जुड़े।

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माधवकांत मिस्र अब ‘महामंडलेश्वर स्वामी मार्तंडपुरी जी’ हैं। वो ‘गेरुआ’ धारण करते हैं, पर ‘भगवाधारी’ नहीं हैं। वे कभी वैसे थे भी नहीं। 84 में जितने बिंदास थे, आज भी उतने ही बिंदास हैं। तब जितने उदार थे, आज भी उतने ही उदार हैं। हाँ, इस ‘स्वामी’ ने गेरुआ या भगवा जो भी कहें, महामंडलेश्वर होने के उस पारम्परिक अवरा को अपने तरीके से तोड़ा भी है… कैसे, यह उनके साथ थोड़ी देर बैठकर ही समझा जा सकता है।

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तकनीकी तौर पर माधवकांत मिश्र जी मेरे तीसरे सम्पादक रहे हैं, लेकिन मेरे कॅरियर के शायद सबसे महत्वपूर्ण सम्पादक (कॅरियर की शुरुआत में ही वो इतना बड़ा टर्निंग पॉइंट जो था)। एक अत्यंत कुशल ‘एडिटोरियल मैनेजर’ जिसका महत्व बहुत बाद में समझ में आया। सम्भव है माधवकांत जी की यह तारीफ मेरे कुछ मित्रों-अमित्रों को खास अच्छी न लगे, लेकिन जिन्होंने ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ का वह दौर नजदीक से देखा है, वे शायद ही असहमत हों। वह आज के तमाम दिग्गज पत्रकारों की निर्मिति का दौर भी था। हमने साथ-साथ सिर्फ काम ही नहीं किया, बहुत कुछ जिया भी, और जो अब तक कम से कम मेरे साथ तो है।

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माधवकांत जी के महामंडलेश्वर बनने के बाद भी हालाँकि फोन पर बात करते हुए कभी नहीं लगा कि मैं किसी ‘दूसरे’ माधवकांत से बतिया रहा हूँ। आज भी फोन पर हों या सामने, उसी गर्मजोशी से मिलते हैं। उनके गेरुआ धारण करने के बाद जब बनारस दफ्तर में मिलना हुआ, तो कुछ शंकाएं जरूर थीं, मेरे मन में। मेरा मन इस ‘भगवा’-धारी महामंडलेश्वर से मिलने में बहुत सहज नहीं था। लेकिन मिलने के बाद लगा ऊपरी आवरण के अलावा तो इस व्यक्ति में कुछ बदला ही नहीं है। वही स्फीति, वही वाचालता, वही बिना कुछ थोपे, धीरे-धीरे कुछ समझाना और फिर समझा ले जाना।

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वे हमेशा कुछ नया करते रहे हैं। इस बार उन्होंने बताया है कि रुद्राक्ष सिर्फ पहाड़ पर ही नहीं, जमीन पर और हमारी बालकनी के गमलों में भी हो सकता है। वही रुद्राक्ष, जिसके बारे में माना जाता है कि यह तो शीतप्रदेश में ही सम्भव है। वैसे भी रुद्राक्ष के पौधों का 70-80 फीसदी तो इंडोनेशिया, मलेशिया आदि में है। भारत में इनकी संख्या नगण्य है और शेष नेपाल में है। इन्हें वहां से भारत लाने की तमाम जटिलताएं भी हैं। खैर, माधवकांत मिश्र (मार्तण्डपुरी जी) इस वक्त इसी रुद्राक्ष को घर-घर पहुँचाने के मिशन पर लगे हैं, और बता रहे हैं कि यह गमलों में भी कैसे हो सकता है। रुद्राक्ष की ओर उनके झुकाव की अलग और लम्बी कहानी है। कुछ और बड़े मिशन भी उनके साथ जुड़े ही हैं। शोभित यूनिवर्सिटी के सर्वेसर्वा तो हैं ही।

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मेरे लिए सुखद इतना ही है कि यह स्वामी बाकी तमाम स्वामियों से बिलकुल अलग हैं। ‘स्वामीपन’ की प्रचलित परिभाषा से बिकुल अलग. भरे-पूरे परिवार वाला अपना घर ही इस स्वामी की कुटिया है। वे आज भी उतने ही सहज और दोस्ताना और बिंदास हैं, जैसा 35 साल पहले थे। इस ‘स्वामी सम्पादक’ के साथ इतनी लम्बी पारिवारिक बैठकी ने कैसी नई ऊर्जा दी है, यह उनसे मिलकर ही समझा जा सकता है।

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