बिहार विधानसभा चुनाव के लिए कल यानी 28 अक्तूबर को वोट पड़ेंगे। विपक्ष के बेरोदगारी जैसे मुद्दे के बावजूद चुनाव का जातीय आधार पर होना तय है। जातीय आधार पर बिहार में चुनाव कोई नयी बात नहीं है। क्या हैं जातियों की हकीकत, बता रहे हैं आशीष चौबे
कोरोना महामारी के बीच विश्व में पहली बार बिहार में चुनाव होने जा रहा है। पहले चरण का चुनाव 28 अक्टूबर को होना है। वैसे चुनाव की घोषणा के पूर्व विपक्ष की तरफ से ज़रूर इस पर कुछ सवाल उठाए गए थे, पर चुनाव आयोग की घोषणा के बाद सभी पार्टियां अक्टूबर से लेकर नवम्बर तक चलने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के अभियान में जुट गयी हैं। आत्मनिर्भर भारत का नारा देकर सरकार चुनावी दौड़ में शामिल हो गई है। कोरोना से लड़ाई का अभियान पीछे छोड़ दिया गया है और भारत फिर से चुनावी पटरी पर लौट चुका है।
इस बार के चुनाव प्रचार में एक खास चीज निकलकर आयी है और वो है चुनावी प्रचार के गीत। सबसे पहले बिहार में का बा… के माध्यम से बिहार में वर्तमान शासन की नाकामियों पर चोट किया गया है। इस चुनावी गीत के बाद मानो चुनावी गीतों की बाढ़-सी आ गयी है। इस गीत के जवाब में भाजपा ने बिहार में ई बा… बोल से चुनावी गीत पेश किया। इसके साथ ही इस बोल पर कई और गीत भी आए, जो एक-दूसरे के सवालों का जवाब गीत-संगीत के माध्यम से दे रहे हैं।
इन सब के बीच बिहार में एक ऐसी भी चीज है, जिसकी चर्चा के बिना बिहार की राजनीति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। और यही मूल बात इस बार के चुनावी गीतों से गायब है। वह है जाति। बिहार में चुनाव हो और जाति का गणित न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। क्योंकि, बिहार की राजनीति जातिवाद पर ही आधारित है। बिहार में सबसे बड़ा फैक्टर है यहां का जातीय समीकरण। वैसे तो पूरे भारत में किसी भी राज्य में जातीय समीकरण की अहम भूमिका होती है, लेकिन बिहार के मामले में कहा जा सकता है कि यहां यही एकमात्र फैक्टर है, जो सरकार बनाता भी है और बिगाड़ता भी है।
वैसे बिहार में जातिवाद का फैक्टर कोई नया नहीं है। यह पहले भी था, आज भी है और आगे भी इस फैक्टर के बने रहने की प्रबल संभावना है। बिहार में जातिवाद फैक्टर कितना बड़ा है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आजादी से पहले जनेऊ आंदोलन हुआ और इसी राज्य में जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति आंदोलन में ‘जाति छोड़ो, जनेऊ तोड़ो’ का नारा लगवाया था। इसके साथ ही राममनोहर लोहिया ने पहली बार पिछड़ों के आरक्षण की मांग करते हुए नारा दिया था- ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’। बिहार में एक वक्त ऐसा भी आया, जब बिहार विधानसभा और लोकसभा का चुनाव एक साथ हुआ और वह साल था 1967। उस दौर में बिहार में जातिगत सत्ता-स्थानांतरण की मुख्य वजह रही दलितों और सवर्णों के बीच राजनीतिक टकराव। इसी तरह 1990 में मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू होने के बाद से ही बिहार में जातीय समीकरण तेजी से बदले और पिछड़े वर्ग में बढ़ती राजनीतिक जागरूकता के चलते मतदाताओं में जाति आधारित क्षेत्रीय दलों के प्रति प्रतिबद्धता बढ़ने लगी।
कई दशक पहले से बिहार में राजनीतिक अस्थिरता का जो दौर जो शुरू हुआ था, वह आज तक जारी है। फलस्वरूप बिहार राजनीतिक रूप से इतना अस्थिर रहा है कि यहां अब तक 8 बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है। बिहार में सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ होने वाले राजनीतिक बदलाव की एक बानगी यह भी है कि यहां अब तक 12 सवर्ण, 6 पिछड़े वर्ग से, 3 दलित वर्ग से और एक मुस्लिम मुख्यमंत्री रहे हैं। इस प्रदेश में 5 दिन के मुख्यमंत्री से लेकर 14 वर्ष से भी अधिक मुख्यमंत्री बने रहने के रिकॉर्ड भी दर्ज हैं।
बिहार का राजनैतिक इतिहास देखें तो 1990 के बाद हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों से स्पष्ट है कि यहां गठजोड़ की राजनीति क्यों हावी है। यदि सभी राजनैतिक दल अकेले चुनाव लड़ें तो बिहार में खंडित जनादेश ही आएगा और कोई सरकार नहीं बना पाएगा। राज्य की राजनीति में भाजपा व कांग्रेस जैसे दो राष्ट्रीय दल और राजद व जदयू सरीखे दो ताकतवर क्षेत्रीय दलों में से कोई भी पिछले 30 वर्षों में हुए चुनावों में एक बार भी बहुमत का आंकड़ा नहीं छू सका है। और, इसका एकमात्र कारण है बिहार के मतदाताओं का जाति के आधार पर बंट जाना।
आजादी के बाद से ही बिहार की सत्ता पर कब्जा जमाए कांग्रेस को लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक में उखाड़ फेंका था। इसके साथ ही इसी दौर में भाजपा के हिंदुत्व की काट के लिए लालू यादव ने लोहियावाद से आगे बढ़कर ‘कास्ट अलाइनमेंट’ करते हुए मुस्लिम-यादव (एम-वाई) के ‘माय समीकरण’ से सत्ता की सीढ़ी चढ़ी। 1990 के बाद 1995 के विधानसभा चुनाव में एमवाई समीकरण के दम पर लालू यादव दोबारा सत्ता में लौटे थे। इस चुनाव में कांग्रेस का लगभग सफाया हो चुका था।
तब 1995 में दोबारा सत्ता में लौटे लालू प्रसाद के शासनकाल में बढ़ते अपराध से जनता का हाल बेहाल हो चुका था। परिणामस्वरूप राज्य में बीजेपी ने लालू सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। इसके बाद लालू यादव का एक ऐसा बयान आया, जिसके बाद बिहार की राजनीति गरमा गयी और राज्य की अगड़ी जाति के लोग भड़क उठे थे। लालू ने बयान दिया था- भूरा बाल साफ करो। लालू के इस बयान को बिहार की सवर्ण राजनीति अब तक भूल नहीं पाई है। आगे भी भूल पाने की उम्मीद नहीं दिखती।
बिहार के इसी जातीय समीकरण को भांपते हुए बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी सोशल इंजीनियरिंग आधारित जो ‘न्यू कास्ट अलाइनमेंट’ राजनीतिक पैटर्न अपनाया, वह बिहार की राजनीति में पहले भी सफलतापूर्वक आजमाया हुआ था।
बिहार में 200 से ज्यादा जातियां, पर राजनीति में सक्रिय हैं सिर्फ 12
बिहार की जातीय समीकरण वाली राजनीति की एक विड़म्बना यह भी है कि एक तरफ बिहार में जहां सवा दो सौ से ज्यादा जातियां हैं, पर बात जब सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने की आती है तो यह आकंडा लगभग 12 तक सिमट जाता है। एक सच यह भी है कि आजादी से अबतक राज्य की 20 जातियों के प्रतिनिधि ही संसद (Parliament) तक पहुंच सके हैं। बाकी को सांसद बनने का मौका तक नहीं मिला है। हालांकि बिहार विधानसभा में यह आंकड़ा बढ़ जाता है।
पिछले लोकसभा चुनाव को भी देखेंगे तो पाऐंगे कि राजनीतिक दलों ने सिर्फ 21 जातियों को ही टिकट दिया था, जो कुल संख्या का महज 10 फीसद है। यानी 90 फीसद जातियां टिकट पाने के हक तक से भी वंचित हैं। बिहार की राजनीति में अति सक्रिय जातियों में दव, भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, कोईरी, कुर्मी, दलित, बनिया, कहार, धानुक और मल्लाह शामिल हैं। जबकि बिहार में कुल जातियों की संख्या इस प्रकार है- सवर्ण : 7, , पिछड़ा वर्ग : 31, एसटी : 33, एससी : 37 और अति पिछड़ा : 113
जाति आधारित बिहार की राजनीति में अगर वोट की जातिगत स्थिति पर गौर करें तो सबसे ज्यादा 51 प्रतिशत आबादी ओबीसी की है। वहीं 14.4 प्रतिशत यादव, 6.4 प्रतिशत कुशवाहा-कोइरी, 4 प्रतिशत कुर्मी और करीब 16 प्रतिशत आबादी दलितों की है। जबकि बिहार में सवर्णों की आबादी करीब 17 प्रतिशत है, जिसमें भूमिहार 4.7 प्रतिशत, ब्राह्मण 5.7 प्रतिशत, राजपूत 5.2 प्रतिशत और कायस्थ 1.5 प्रतिशत हैं। वहीं सूबे में 16.9 प्रतिशत मुस्लिम आबादी भी मौजूद है।
इन सभी चीजों पर गौर करेंगे तो पायेंगे कि जाति के आधार पर ही बिहार में शुरू से राजनीति होती रही है। यह भी सच है कि 5 साल तक विकास का ढिंढोरा पीटने वाली राजनीतिक पार्टियों के साथ जनता भी चुनाव या यूं कहे मतदान के वक्त जातीय उम्मीदवार में ही संभावना तलाश करने लगती है। यही कारण है कि अब राज्य में नीतियां भी जातियों को ध्यान में रखकर बनने लगी हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी की थी टिप्पणी- जातीय आधार पर बांटते हैं राजनीतिक दल
उत्तर प्रदेश में चुनाव के पूर्व लगातार हो रही जातीय रैलियों के विरुद्ध एक याचिका दायर की गयी थी। 2013 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में जातीय रैलियों पर प्रतिबंध लगा दिया था। याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में कहा था कि विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव निकट आते ही समाज को जातीय आधार पर बांटने का काम करते हैं। कहा गया कि जातीय नाम देकर रैलियों का आयोजन करना और चुनाव के बाद विशेष जाति के लोगों को अधिक लाभ देना संविधान व कानून दोनों के खिलाफ है। जाति के आधार पर बंटवारे से समाज में असंतुलन पैदा होता है एवं साफ–सुथरी चुनाव की मंशा धरी की धरी रह जाती है। देश की अखंडता एवं सामाजिक संरचना को नुकसान होता है। लोगों में अविश्वास पैदा होता है। सच्चाई यह है कि देश की राजनीति आज जातिवाद के कैद में है।