- वीर विनोद छाबड़ा
दिलीप सरदेसाई, भारतीय क्रिकेट के नवजागरण के लिए जाने गए। भारतीय क्रिकेट इतिहास के सुनहरे सफे जब पलटे जाते हैं तो उनका ज़िक्र जरूर होता है। वो तकनीकी रूप से शुद्ध दाएं हाथ के बल्लेबाज़ थे और गोवा में जन्मे पहले टेस्ट क्रिकेटर भी। उनका डेब्यू 1961-62 इंग्लैंड के विरुद्ध कानपुर टेस्ट में हुआ था, जिसमें वो 28 रन पर हिट विकेट हुए। उसी साल वेस्ट इंडीज़ टूर में भी वो शामिल रहे।
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वेस्ले हाल और चार्ली ग्रिफ्फिथ जैसे तूफानी बॉलर्स का सामना करने की हिम्मत कोई जुटा नहीं पा रहा था, तब 21 साल के युवा दिलीप ने दिलेरी दिखाई। जब एक मैच में नारी कांट्रेक्टर का ग्रिफ्फिथ के बाउंसर से सर फूटा था तो दिलीप छोर पर थे। नारी की अनुपस्थिति में ओपनिंग की ज़िम्मेदारी दिलीप पर आ गयी। बारबाडोस टेस्ट में उन्होंने 31 और 60 रन की साहसिक पारियां खेलीं, लेकिन अगले टेस्ट की दोनों पारियों में ज़ीरो बटोरे तो बाकी टेस्ट मैचों से बाहर हो गए।
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इंगलैंड के विरुद्ध 1963-64 की गृह श्रंखला के कानपुर टेस्ट में उनके पहली पारी में बनाये 79 शानदार रन किसी काम नहीं आये जब भारत को फॉलोऑन के लिए बाध्य होना पड़ा। लेकिन अगली पारी में उनके 87 और बापू नाडकर्णी की सेंचुरी ने भारत को सम्मानपूर्वक ड्रा दिलवाया। न्यूज़ीलैंड के विरुद्ध 1964-65 की सीरीज़ में उनका प्रदर्शन बहुत बेहतर रहा। दिल्ली में उन्होंने 106 रन की तूफानी पारी खेली जो अंततः न्यूज़ीलैंड की सात विकेट से हार का सबब बनी। बम्बई में भारत की हालात उस समय बहुत खराब हो गयी, जब टीम 88 रन पर सिमट कर फॉलोऑन मिला। तब दिलीप ने शानदार डबल सेंचुरी लगाई। और फिर दूसरी पारी में 80 रन पर 8 विकेट खोकर संघर्ष कर रही न्यूज़ीलैंड हारते-हारते बची थी।
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1967-68 में दिलीप ऑस्ट्रलिया गयी टीम का हिस्सा रहे, लेकिन पहले दो टेस्ट में मिली नाकामी और फिर चोटिल होने के कारण उन्हें घर लौटना पड़ा। उसके बाद दिलीप भले घरेलू मैचों में ढेर रन बनाते रहे लेकिन नेशनल सलेक्टर्स ने उनको भुला ही दिया था। उन्होंने ने भी अपना टेस्ट करियर ख़त्म मान लिया। लेकिन अचानक ही उनके भाग्य ने पलटा खाया।
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1971 में वेस्ट इंडीज़ जा रही टीम के लिए जब कप्तान अजीत वाडेकर से पूछा गया कि चंदू बोर्डे और दिलीप सरदेसाई में किसे चाहेंगे तो उन्होंने दिलीप का नाम लिया। और दिलीप ने उन्हें निराश नहीं किया। अब तक उन्हें स्पिन के विरुद्ध रन बनाने का विशेषज्ञ माना जा रहा था, लेकिन इंडीज़ में उन्होंने पेस बैटरी को भी आसानी से फेस किया। ये सीरीज़ सुनील गावस्कर के 774 रन और पोर्ट ऑफ़ स्पेन में ऐतिहासिक जीत के लिए याद की जाती है लेकिन ये मुमकिन न होता यदि इसकी आधारशिला दिलीप ने न रखी होती। उन्होंने तीन शतकों, जिसमें एक डबल भी था, सहित 642 रन बनाये। इसे उनका नवजागरण काल माना गया। इसी साल ओवल में एक बार फिर भारत को इंग्लैंड के विरुद्ध चार विकेट से ऐतिहासिक जीत मिली और ये जीत संभव न होती अगर इसमें दिलीप का क्रमशः 54 और 40 की पारियां का अमूल्य योगदान न रहा होता। 1972 में इंग्लैंड के विरुद्ध दिल्ली में मात्र 12 और 10 रन ही बना पाए। और ये उनका आख़िरी टेस्ट साबित हुआ। उन्होंने 30 टेस्ट में पांच शतकों (दो डबल) सहित 2001 रन बनाये। और घरेलू क्रिकेट में 10230 रन बनाये। वो बंबई की ओर 13 बार रणजी खेले जिसमें टीम 10 बार फ़ाइनल में पहुंची और एक भी हारी नहीं।
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दिलीप सरदेसाई ज़बरदस्त प्रेमी जीव रहे। बंबई में पढ़ाई के लिए नंदिनी पंत ने उन्हें देखा और उन्होंने नंदिनी को। पहली ही नज़र में प्रेम हो गया। नंदिनी ने एक इंटरव्यू में बताया जब दिलीप तीन महीने के वेस्ट इंडीज़ टूर पर थे तो दोनों ने इक-दूजे को लगभग रोज़ ख़त लिखे। नंदिनी का आधे से ज़्यादा ख़त दिलीप की अंग्रेज़ी में गलतियां बताने में भर जाया करता था। दिलीप को नंदिनी से इतना प्रेम था कि जब वो एग्ज़ाम दे कर बाहर आतीं थीं तो दिलीप थर्मस में कॉफ़ी लेकर खड़े मिलते थे।
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8 अप्रेल 1940 को जन्मे दिलीप सरदेसाई का किडनी सहित शरीर के कई अंग फेल होने के कारण 2 जुलाई 2007 को 67 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनकी क्रिकेट विरासत उनके बेटे राजदीप सरदेसाई भले न सहेज पाए लेकिन पत्रकारिता में उन्होंने बहुत बड़ा मुकाम ज़रूर हासिल किया है।
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