बीजी वर्गीज ने जब इंडियन एक्सप्रेस में आधी तनख्वाह मांगी

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बीजी वर्गीज इंडियन एक्सप्रेस के जब संपादक बने तो उन्हें रामनाथ गोयनका ने जो तनख्वाह आफर की, उससे आधी तनख्वाह ही वर्गीज ने मांगी।
बीजी वर्गीज इंडियन एक्सप्रेस के जब संपादक बने तो उन्हें रामनाथ गोयनका ने जो तनख्वाह आफर की, उससे आधी तनख्वाह ही वर्गीज ने मांगी।
सुरेंद्र किशोर, वरिष्ठ पत्रकार
सुरेंद्र किशोर, वरिष्ठ पत्रकार
बीजी वर्गीज इंडियन एक्सप्रेस के जब संपादक बने तो उन्हें रामनाथ गोयनका ने जो तनख्वाह आफर की, तो उससे आधी तनख्वाह ही बीजी वर्गीज ने उनसे मांगी। तब संपादक की तनख्वाह 20 हजार होती थी। यानी 10 हजार पर उन्होंने काम किया। पत्रकारिता से जुड़े ऐसे दुर्लभ प्रसंगों को गोदी मीडिया के लगते आरोपों के संदर्भ में याद किया है वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने।

संभवतः तब तक आपातकाल नहीं लगा था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सचिवालय से एक बड़े अखबार के संपादक को फोन गया। ‘आदेश’ दिया गया- ‘‘प्रधानमंत्री विदेश जा रही हैं। फलां संवाददाता को उनके साथ लगा दीजिए।’’ तनिक देर किए बिना स्वाभिमानी संपादक ने कहा कि ‘‘क्यों फलां संवाददाता ही?’’ यह सवाल संपादक जी को महंगा पड़ा। उन्हें पदमुक्त कर दिया गया। वैसे वे कोई खाऊ-पकाऊ और हथियारों के दलाल संपादक नहीं थे। उनके बारे में थोड़ा जान लीजिए।

1982 की बात है। जब उन्हें इंडियन एक्सप्रेस का संपादक बनाया गया तो उन्होंने यानी बीजी वर्गीज ने संपादक (यानी अपने ही पद) के लिए अधिक वेतन पर एतराज कर दिया। तब उस पद का वेतन मासिक 20 हजार रुपए था। वर्गीज साहब ने कहा कि मेरा काम 10 हजार रुपए से ही चल जाएगा। उनका तर्क था कि पत्रकारों के पास अधिक पैसे नहीं होने चाहिए।

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इस पर एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका ने उनसे प्यार से कहा कि ‘‘तुमको यहां नहीं, बल्कि वैटिकन सिटी में रहना चाहिए था।’’ खैर, वर्गीज साहब 1986 तक एक्सप्रेस के प्रधान संपादक रहे। हालांकि यह नहीं मालूम हो सका कि वे पूरा  वेतन लेने के लिए राजी हुए थे या नहीं।

जिस अखबार मालिक ने प्रधानमंत्री को खुश करने के लिए वर्गीज जैसे निष्पक्ष व ईमानदार संपादक को अपने यहां से विदा कर दिया, उस मालिक को भी मैं कोई दोष नहीं देता। क्योंकि अखबार में बड़ी पूंजी लगती है। कोई व्यापारी अपनी पूंजी को खतरे में भला क्यों डालेगा? जब सेवा करने के लिए राजनीति व सत्ता में आए अधिकतर नेताओं के जीवन से ही त्याग-बलिदान का धीरे-धीरे लोप होने लगे तो व्यापारियों से ही किसी नैतिक मुद्दे पर सत्ता से टकराने की उम्मीद क्यों करनी चाहिए?

इस प्रकरण की याद दिलाने का उद्देश्य यह है कि जब वर्गीज हटाए गए थे तो उस अखबार समूह को किसी ने गोदी मीडिया नहीं कहा। जबकि, सच कहें तो उस अखबार ने ‘गुलाम मीडिया’ का रोल अदा किया था। पर, जब आज भी अनेक मीडिया घराने सन 1975 की राह पर चल रहे हैं तो कुछ लोग दिन रात गोदी-गोदी की रट लगा रहे हैं, यह जानते हुए भी कि अपवादों को छोड़कर यह सब पुरानी रीति-नीति रही है।

हां, तब भी एक्सप्रेस, स्टेट्समैन और ट्रिब्यून जैसे अखबार जरूर थे, जिन्हें गोदी या गुलाम मीडिया नहीं कहा जा सकता था। आज भी कुछ मीडिया घराने मौजूद हैं, जो गोदी या गुलाम मीडिया नहीं हैं। भले वे एकतरफा व अभियानी हों। मैं एकतरफा या अभियानी मीडिया का आलोचक नहीं हूं बशर्ते वह तथ्यपरक हो। एक्सप्रेस के संपादक अरूण शौरी भी एकतरफा ही थे, किंतु हमेशा तथ्यपरक रहे। वैसे भी मतदाता जब वोट देने बूथ पर जाता है तो किसी एक को ही तो वोट देता है! यदि मीडिया को सरकार का गोदी, गुलाम या सह अस्तित्व का रवैया नहीं अपनाना है तो उसे रामनाथ गोयनका से सीखना चाहिए।

संविधान सभा के सदस्य व लोकसभा के दो बार सदस्य रहे रामनाथ गोयनका जी ने देश के कुछ महानगरों में किसी तरह जमीन हासिल कर ली थी। उन पर बहुमंजिला इमारतें बनवा दीं। उनके किराए के पैसों से एक्सप्रेस का घाटा पूरा होता था। इससे यह हुआ कि विज्ञापनों के लिए एक्सप्रेस की, सरकार पर निर्भरता नहीं थी। नतीजतन एक्सप्रेस समूह आमतौर पर स्वतंत्र संपादकीय रुख अपनाता रहा। गोयनका जी जानते थे कि जरूरत पड़ने पर सरकार की धज्जियां उड़ाने वाले एक्सप्रेस को सरकारें विज्ञापन नहीं परोसेंगी। इसलिए उन्होंने पहले ही वैकल्पिक इंतजाम कर रखा था।

इसके विपरीत आज के कई मीडिया समूह सरकार से यह उम्मीद करते हैं कि हम सही-गलत मुद्दे पर भले उसे भरपेट गालियां भी देते रहें और वह हमें भरपूर सरकारी विज्ञापन भी देती रहे। यह कैसे संभव है?

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