कहां गइल मोर गांव रे, बता रहे वरिष्ठ पत्रकार शेषनारायण सिंह

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प्रतीकात्मक फोटो। सौजन्य- अजय कुमार
  •  शेष नारायण सिंह 

1975 में जब मैंने संत तुलसीदास डिग्री  कालेज, कादीपुर (सुल्तानपुर) की प्राध्यापक की नौकरी छोडी थी तो एक महत्वपूर्ण फैक्टर यह भी था कि अपने बच्चों को अपनी जैसी मजबूर ज़िंदगी से बाहर लाने की कोशिश करूंगा। उस दिन कुछ लक्ष्य तय किया था। जो भी लक्ष्य थे, सभी पूरे हो गए। अब भी काम  मिलता है, उसी उत्साह से करता हूँ, जिस उत्साह से तब करता था, जब तनख्वाह या कुछ एक्स्ट्रा पैसे के लिए काम करता था। लेकिन अब लगता है कि उसी गाँव में वापस चला जाऊं, जहां पैदा हुआ था। अपने टारगेट बहुत बड़े नहीं थे। सोचा था कि जीवन में ऐसा कुछ करने की कोशिश करेंगे कि अवसरों की कमी के चलते मेरी माई की हमारे बाद वाली  पीढ़ियों की ज़िंदगी वैसी न  हो, जैसी हमारी थी। बचपन में तो नहीं लगता था कि अभाव की ज़िंदगी है, क्योंकि गाँव में सभी परिवारों की हालत एक जैसी ही थी। बड़े होने पर समझ में आया कि मेरा गाँव अभाव की ज़िंदगी जीने वालों का गाँव था।

सोचता हूँ कि  अगर मेरी कुशाग्रबुद्धि बड़ी बहन को शिक्षा हासिल करने का अवसर  मिला  होता तो वह भी सफलता की ऊंचाइयों पर होती। मेरी छोटी बहन बहुत  खूबसूरत अक्षर लिखती थी और अपनी क्लास में अव्वल रहती  थी, लेकिन प्राइमरी के बाद पढ़ने नहीं गयी। मेरे भाई में अथाह शारीरिक शक्ति थी। अगर उसको राष्ट्रीय या अंतर राष्ट्रीय मुकाबलों में जाने का मौक़ा मिला होता तो  उसने  आज के चालीस साल पहले बाबू का और  इलाके का नाम  रोशन कर दिया होता। गाँव के और लोगों के बारे में भी यही सच है।

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बहरहाल जो नहीं हुआ, उसका अफ़सोस क्यों करना। हम  चारों भाई-बहनों के बच्चों को अवसर मिला और जिस  परिवार में लड़कियों को मिडिल स्कूल तक नहीं पढने दिया  गया था, उसी परिवार में  लगभग सभी लड़कियां एम.ए. पास हैं। गाँव के लोगों ने भी खूब तरक्की की है। शिक्षा ने हमारे गाँव में बहुत कुछ बदल दिया है।

अपने गाँव वापस जाने की  तलब मार्च महीने में मुझे सबसे ज्यादा घेरती है। ठण्ड के बाद का गाँव, पूस माघ की ठण्ड और  खाने की कमी से उबरता हुआ गाँव बहुत याद आता है। लोगों के आँगन में अधपके जौ के गट्ठर, जिनको ददरी कहा जाता है, मुझे बहुत याद आते  हैं। एक बोझ मटर घर आती थी और उसके दाने निकाल कर  निमोना और ददरी से निकले  जौ को सुखा कर बनी हुई रोटी का स्वाद अभी तक  नहीं  भूला है।

गाँव के शारीरिक रूप से मज़बूत लड़कों का बसंत पंचमी के बाद  होली जलाने के लिए किसी के भी खेत या बाग से लकड़ी उठा लाने की कहानियाँ आज भी याद आती रहती हैं। सबसे बड़ी कहानी तो लल्लू पांडे की है, जो शायद 1945-50 के बीच की होगी, जब अपनी उम्र के लोगों के साथ वे होली के लिए  लकड़ी लेने किसी के बाग में  गए थे और उसी लकड़ी में लगे मधुमक्खी के छत्ते के लपेट में आ गए। मधुमक्खियों ने उनको खूब काटा और कई दिन तक मुंह सूजा रहा। यह वारदात मेरे जन्म के पहले की है, लेकिन मेरे बचपन की कहानियों में  शामिल है।

एक और बात  जो मुझे कभी नहीं  भूलती वह, मेरी माँ की वह इच्छा थी,  जिसके तहत वे अपने किसी बच्चे की शादी डोभी में करना चाहती थीं। डोभी में शिक्षा का खूब प्रसार-प्रचार था और वहां से आई बहुएं बच्चों को पढ़ाती-लिखाती थीं। राजकुमार ठाकुरों के यहाँ डोभी की लड़कियों की बहुत शादियाँ  हुई थीं, लेकिन मेरी पट्टी में कोई बहू डोभी की नहीं थी। मेरे छोटे भाई की शादी जब डोभी में तय हुई तो माताजी बहुत ही खुश हुई थीं। ऐसी सैकड़ों यादें हैं, जिनके कारण मेरा गाँव मेरी यादों से  कभी हटता ही नहीं।

यह याद सबसे ज़्यादा फागुन में क्यों आती है, मैं अभी तक इसको समझ नहीं पाया हूँ। फगुनहट की हवा को मेरे गाँव में हउहार कहते थे। होली में  त्यौहार का जो तत्व है, उसमें बाल मन को खींच लेने की बहुत अधिक शक्ति है। उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले में मेरा बहुत छोटा सा गाँव है। उसका नाम कहीं भी सरकारी रिकॉर्ड में नहीं है। सरकारी रिकॉर्ड में पड़ोस के गाँव का नाम है। मेरा गाँव उसी का अटैचमेंट है।

मेरे बचपन में होली एक ऐसा त्यौहार था, जब सारा गाँव साथ-साथ हो जाता था। बाकी कोई त्यौहार इस रुतबे का नहीं होता था। हाँ, अपनी बेटियों की शादी में पूरा गाँव एक साथ खड़ा रहता था। जब मैंने अपने गाँव के बाहर की दुनिया देखनी शुरू की, तब मुझे लगने लगा था कि हमारा गाँव गरीब आदमियों का गाँव था। सन 61 की जनगणना में मैं लेखपाल के साथ गेरू लेकर जुटा था। तब कुल 26 परिवार थे मेरे गाँव में। मैंने हर घर के सामने, जो भी लेखपाल जी ने बताया था, उसे गेरू से लिखा था। अब तो शायद 80 परिवार होंगे। खेत उतना ही। आबादी की जमीन उतनी ही, लेकिन जनसंख्या चार गुनी हो गयी है। नतीजा यह है कि लोगों के घर भी छोटे हो गए हैं, खेती की ज़मीन भी कम हो गयी है और आपसी अपनैती भी कम हो गयी है। लेकिन उन दिनों  उन्ही 26 परिवारों के लोग होली के दिन ऐसे हो जाते थे, जैसे एक घर के हों।

मेरे गाँव में कई जातियों के लोग रहते थे। ब्राह्मणों की दो उप जातियां थीं- पाण्डेय और मिश्र। ठाकुरों की पांच उपजातियां थीं- चौहान, गौतम, बैस, परिहार और राजकुमार। नाऊ, कहार और दलितों के भी परिवार थे। पूरे गाँव के लोग एक दूसरे के भाई, बहन, काकी, काका, बाबा, आजी, भौजी जैसे रिश्तों में बंधे थे। कई साल बाद मेरी समझ में यह बात आई कि यह सारे रिश्ते माने मनाये के थे। कहीं भी रिश्तेदारी का कोई आ़धार नहीं था।

गाँव में मेरे सबसे प्रिय थे हमारे फूफा। वे दलित थे, ससुराल में रहते थे, दूलम नाम था उनका। उनकी पत्नी गाँव के ज्यादातर लोगों की फुआ थीं। बूढ़े लोग उनका नाम लेते थे। होली के दिन मिलने वाले कटहल की सब्जी और दाल की पूरी की याद आज भी मुझे होली के दिन अपने गाँव में जाने के लिए बेचैन कर देती है। मेरे गाँव में पढ़े-लिखे लोग नहीं थे। केवल एक ग्रेजुएट थे पूरे गाँव में। बाद में उन्होंने पीएचडी तक की पढ़ाई की। डॉ श्रीराज सिंह ने अच्छे स्कूलों से पढाई की थी। उन्होंने वाराणसी के उदय प्रताप कालेज से पढ़ाई की। उन दिनों स्कूल जाने वाले सभी बच्चे उन्हीं डॉ श्रीराज सिंह को आदर्श मानते थे। मेरे तो खैर वे हीरो थे  ही।

मेरी पांचवीं के बाद गर्मी की छुट्टियों  में वे घर आये थे। उन्होंने मुझे इतनी अंग्रेज़ी पढ़ा दी कि मैं जुलाई में जब अंग्रेज़ी की पढाई शुरू हुई तो आगे ही आगे रहा और उसका लाभ जीवन भर हुआ। उन दिनों अंग्रेज़ी की पढ़ाई छठवीं क्लास से शुरू होती थी।

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1967 में आई हरित क्रान्ति के साथ मेरे गाँव में लोगों के सन्दर्भ बदलने शुरू हुए। कुछ लोगों ने किसी तरह से कुछ पैसा-कौड़ी इकठ्ठा कर के औरों की ज़मीन खरीदनी शुरू कर दी। उसी दौर में मेरे गाँव में गरीबी का मजाक उड़ना शुरू हो गया और इंसानी रिश्ते हैसियत से जोड़ कर देखे जाने लगे। मेरे गाँव के लोग कहा करते थे कि हमारे गाँव में कभी पुलिस नहीं आई थी। लेकिन जमीन की खरीद के साथ शुरू हुई बेईमानी के चलते फौजदारी हुई, सर फूटे, मुक़दमेबाज़ी शुरू हुई। और मेरा गाँव तरह तरह के टुकड़ों में विभाजित हो गया।

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कुछ साल बाद गाँव के ही एक बुज़ुर्ग का क़त्ल हुआ। फिर गाँव के लोग कई खेमों में दुश्मन बन कर बँट गए। कुछ साल पहले जब मैं अपने गाँव गया था तो लगा कि कहीं और आ गया हूँ। मेरे आस्था के सारे केंद्र ढह गए हैं। लोग होली मिलने की रस्म अदायगी करते हैं। ज्यादातर परिवारों के नौजवान किसी बड़े शहर में चले गए हैं। कुछ लड़कों ने पढ़ाई कर ली है, लेकिन खेती में काम करना नहीं चाहते और बेरोजगार हैं।

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मेरे गाँव की तहसील पहले कादीपुर हुआ करती थी, नदी पार कर के जाना होता था। लेकिन अब तहसील तीन किलोमीटर दूर लम्भुआ बाज़ार में है। मेरे गाँव के आसपास के गाँवों के कुछ होनहार  लड़के अब तहसील में दलाली करते हैं। कुछ नौजवानों का थाने की दलाली का अच्छा कारोबार चल रहा है। मेरा गाँव अब मेरे बचपन का गाँव नहीं है, लेकिन यहां  दूर देश में बैठे मैं अपने उसी गाँव की याद करता रहता हूँ, जो मेरे बचपन की हर याद से जुडा हुआ है, जिसमें मेरी माँ का रोल सबसे ज्यादा स्थायी है।

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मेरी माँ जौनपुर शहर से लगे हुए एक गाँव के बहुत ही संपन्न किसान की  बेटी थीं। मेरे नाना के खेत में तम्बाकू और चमेली की कैश क्रॉप उगाई जाती थी और बीसवीं  सदी की शुरुआत में वे मालदार किसान थे। 1937 में उन्होंने अपनी बेटी की शादी अवध के एक मामूली ज़मींदार परिवार में कर दिया था। मेरे पिता के परिवार में शिक्षा को कायथ करिन्दा का काम माना जाता था और जब मेरे माता-पिता की शादी के 14 साल बाद जमींदारी का उन्मूलन हो गया, तब लगा कि सब कुछ लुट गया। हमारे परिवार के लोग गांधी जी से बहुत नाराज़ रहते थे और उनको अपमानजनक भाषा के साथ संबोधित करते थे। जमीन्दारी में ज़मीन खोने से गुस्सा था और  सारा गुस्सा  गांधी जी पर ही  फूटता था। उनको गंधिया कहते थे। बाद में वही गंधिया मेरा देवता बना और आज मैं मानता हूँ कि अगर महात्मा गाँधी न पैदा हुए होते तो भारत ही एक न होता।

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मेरी माँ ने महात्मा गांधी को कभी गाली नहीं दी, लेकिन उसी वक़्त मेरी माँ को एहसास हो गया कि शिक्षा होती तो गरीबी का वह खूंखार रूप न देखना पड़ता, जो उसने जीवन भर झेला। इसी अपने गाँव में इस साल होली पर फिर जाने वाला हूँ। देखें इस बार क्या अनुभव  मिलते हैं।

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