पाकिस्तान में हवाई हमले में दहशतगर्दों के मारे जाने की खबर के साथ सबने इसे सराहा जरूर। यह अलग बात है कि इसका श्रेय नरेंद्र मोदी को देने के बजाय सेना को देने की सियासी दलों ने चाल चली।देश के भीतर इस पर हस भी छिड़ गयी। इन दलों से तो इमरान खान ज्यादा सदाशय निकले, जो मोदी पर इस वजह से भारी पड़ते दिखे।
पाकिस्तान में वायुसेना के कमांडर अभिनंदन के गिरने और पाक सेना के कब्जे में जाने के ठीक पहले की दो घटनाओं ने बहस का विषय दे दिया था। पहली घटना पुलवामा में आतंकी हमले में 40 से ज्यादा बीएसएफ जवानों की शहादत की हुई, जिसने बहस का एक मौका दिया और भारत समेत दुनिया के कई बड़े देशों ने पाकिस्तान में दहशतगर्दों के पलने-पनपने पर खासा नाराजगी का इजहार किया। यह स्वाभाविक भी था। इसलिए कि दहशतगर्द पाकिस्तान से आये थे और भारतीय जवानों पर हमला बोला था।
इसके ठीक बाद वायु सेना ने पाकिस्तान में बम बरसाये और मीडिया ने सूत्रों के हवाले से इस बमबारी में 300 से 400 के बीच दहशतगर्दों के मारे जाने की सूचना दी। अधिकृत तौर पर यह दावा न सेना ने किया और न सरकार ने, लेकिन इसे पुलवामा कांड में जवानों की शहादत का बदला लेने के रूप में देखा गया। पाकिस्तान ने तो इस पर उस तरह का कोई हाय-तौबा नहीं मचाया, जितना भारतीय मीडिया में दहशतगर्दों के मारे जाने के आंकड़े गिनाने को लेकर उत्साह दिखा।
इस घटना के तकरीबन 24 घंटे के भीतर यह सूचना आयी कि विंग कमांडर अभिनंदन का विमान क्रैश हुआ और वह पाकिस्तान की जरसजमीं पर जा गिरे। उनकी यातना की तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई तो सबके कलेजे कांप गये और ऐसा एकबारगी लगने लगा कि युद्ध अब अपरिहार्य है। भारतीय सेना की तैयारी और जन उबाल से लगने लगा था कि युद्ध टल नहीं सकता।
इस बीच देश के भीतर ही युद्ध के खिलाफ और पक्ष में बहस छिड़ गयी थी। लग रहा था कि दुश्मनों से मुकाबले के बदले देश के भीतर ही जंग छिड़ गयी है। खासकर बुद्धिजीवी वर्ग दो खेमे में बंट कर आमने-सामने था। वायुसेना की कार्रवाई की सियासी खांचों में बंटे लोगों ने अलग-अलग ढंग से व्याख्या शुरू कर दी। बड़े तबके ने हुकूमत चला रहे नरेंद्र मोदी के जयकारे लगाये तो दूसरे सियासी खेमे के लोगों ने इसका श्रेय वायुसेना को दिया। ऐसा कहने वाले सामान्य जानकारी वाले नहीं थे, बल्कि काबिल लोग थे, जिन्हें यह जरूर मालूम होगा कि सेना बिना सरकार की हरी झंडी के ऐसा कदम उठा ही नहीं सकती।
अभिनंदन के पाकिस्तानी सेना में कब्जे को लेकर आलोचनाएं भी कम नहीं हुईं। ऐसी आलोचना करने वाले अच्छी तरह जानते होंगे कि दूसरे देश का कोई सैनिक पकड़ा जाता है तो उसे उस देश की सेना ही अपने कब्जे में लेती है। अंतरराष्ट्रीय संधियों-प्रावधानों के तहत औपचारिकताएं पूरी करने के बाद ही पकड़े गये व्यक्ति को उसके वतन भेजा जा सकता है। पाकिस्तान की यह साफगोई थी या चाल कि उसने रक्तरंजित और सामान्य तसवीरें जारी कर दीं। बीच बहस में मेरा निजी ख्याल है कि पाकिस्तान की मंशा साफ नहीं होती तो वह तस्वीरें जारी नहीं करता।
अगले दिन कूटनीतिक कामयाबी और हमदर्दी हासिल करने में पाकिस्तान के हुक्मरान इमरान खान ने अपनी संसद में यह ऐलान कर दिया कि अभिनंदन को पाकिस्तान रिहा कर देगा। इससे पहले उन्होंने नरेंद्र मोदी से बात करने की कोशिश की, लेकिन गुस्से के कारण भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से बात करने से मना कर दिया। बीच बहस का वही यह बिंदु है, जहां इमरान मोदी पर भारी पड़ते दिखे। अगले दिन साबूत अभिनंदन को रिहा कर पाकिस्तान ने एक बार और मोदी पर भारी पड़ने का काम किया।
इसे पूरे घटनाक्रम में भारतीय सेना की कार्रवाई के लिए मोदी को क्रेडिट देने में संकोच कर देश के कुछ सियासी दलों ने इसे सेना का शौर्य करार दिया। इन दलों को यह भय सता रहा था कि कहीं मोदी इसे अपनी चुनावी राजनीति में लाभ न उठा लें। इनमें वैसा दल भी था, जिसकी नेता इंदिरा गांधी ने 1971 में पाकिस्तान के जब टुकड़े करवाये तो सबने इंदिरा जी की तारीफ की थी। घोर विरोधी तत्कालीन जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने तो इंदिरा की तारीफ में उन्हें दुर्गा तक कह दिया था। उस दल ने भी उस अवसर को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यह अलग बात है कि कुछ राज्यों में उसके तुरंत बाद हुए चुनावों में उस दल को फायदा तो मिला, पर लोकसभा के चुनाव में इंदिरानीत कांग्रेस हार गयी। यानी उस दल को जरूर यह पता होगा कि उतनी बड़ी कामयाबी के बाद जब इंदिराजी हार सकती थीं तो नरेंद्र मोदी क्यों नहीं हार सकते।
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- अतुल कुमार