पिछड़ों की पालिटिक्स करने वाले कन्हैया के खैरख्वाह क्यों?

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भाकपा के बेगूसराय से उम्मीदवार कन्हैया कुमार
भाकपा के बेगूसराय से उम्मीदवार कन्हैया कुमार
  • प्रेमकुमार मणि

पिछड़ों की पालिटिक्स करने वाले कन्हैया के खैरख्वाह क्यों? पिछड़ा और दलित की पॉलिटिक्स करने वाले कुछेक “बुद्धिजीवियों” की दिलचस्पी कन्हैया में बढ़ गयी है। वे कभी कन्हैया की जाति तो कभी उसके परिवार की पृष्ठभूमि पर अनाप-शनाप बांच रहे हैं।

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मैंने कई महीने पूर्व ही सीपीआई की रैली पर एक टिप्पणी लिखी थी। कन्हैया पर भी कुछ टिप्पणी थी। मेरी अब भी राय है कि वह  अभी उम्मीदवार नहीं बनते तो  अच्छा  था। यह भी है कि कुछ बातों में अपरिपक्वता है। जैसे कि लालू प्रसाद से मिलने पर झट से उनका पैर छू लेना। उन्हें कुछ संजीदा भी होना चाहिए।

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अब जब वह उम्मीदवार हैं तो  मैंने उनके चुनावी समर्थन की बात की है और आज भी कर रहा हूँ। बल्कि कुछ अधिक जोर देकर कर रहा हूँ। बेगूसराय से भी परिचित हूँ और वहां की राजनीति से भी। कन्हैया से मेरा कोई परिचय नहीं है, न कभी मिलना ही  हुआ है। बल्कि  वहां के राजद और भाजपा उम्मीदवार मेरे मित्र हैं। लेकिन मैं यदि वहां  का वोटर होता तो मेरा वोट कन्हैया के पक्ष में जाता। मैं आज भी अपने मित्रों से अपील करता हूँ कि वह इस युवा उम्मीदवार को अपना वोट दें।

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ऐसा नहीं है कि कन्हैया के संसद जाते ही कोई चमत्कार हो जायेगा। नहीं होगा। हाँ, ताज़ी हवा के झोंके की तरह एक युवा स्वर संसद को जरूर मिलेगा। ऐसे माहौल में जहाँ जात-पात पर उम्मीदवार तय किये गए हों और हर इलाके और हर पार्टी में उम्मीदवारी के लिए करोड़ों रुपये की लेन-देन हुई हो, एक युवा, फटेहाल, लेकिन स्वप्नदर्शी का चुनाव लड़ना सत्य का एक प्रयोग ही है। वह कोई देवशिशु नहीं है, हालांकि कुछ लोग अपने स्वार्थ में उसे ऐसा बनाना चाहते हैं। लेकिन मैं कामना करूँगा कि वह सच्चाई पर टिका रहे।

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किसी एक दल के बजाय उन करोड़ों युवाओं की आवाज बने, जो झूठे राष्ट्रवाद के कोलाहल में धकेल दिए गए हैं। हर हिंदुस्तानी की तरह कन्हैया की भी कोई जाति होगी, लेकिन क्या  वह सचमुच जातिवादी भी है? यदि नहीं तो उसकी जाति पढ़नेवालों को अपने कुकृत्य देखने चाहिए कि सामाजिक न्याय का बैनर लगा  कर रात-दिन क्या  कर रहे हैं।

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कन्हैया महागठबंधन का उम्मीदवार बनना चाहता था। उसकी पार्टी ने पैंतरा किया। उसका चेहरा दिखा कर ज्यादा सीटें लेना चाहती थी। मुझ जैसों की राय थी कि कन्हैया को समर्थन जरूर मिले, लेकिन मैं केवल चाह ही सकता था। कन्हैया की जीत किसी पार्टी, किसी जाति और किसी इलाके की जीत नहीं होगी। वह लोकतंत्र की नई उम्मीदों की जीत होगी। कुछ सपनों की  जीत होगी। (फेसबुक वाल से साभार)

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