- शंभुनाथ
छठ पर्व एकमात्र ऐसा पर्व है जो स्त्रियों का है। इसमें पुरोहित ब्राह्मणों, पितृसत्ता तथा जाति भेदभाव का कोई स्थान नहीं है। यह ऐसी पूजा है जो खुद की जाती है। इसमें ब्राह्मण पुजारी नहीं होता। छठ के दिन नदियों, झीलों, सरोवरों के किनारे जैसे मेला लग जाता है। हर तरफ स्त्रियां ही स्त्रियां और उनके केंद्र में व्रतपारिणी। कहीं आभिजात्य का कोई चिन्ह नहीं। अपने देसीपन के साथ इसका मुख्य संदेश स्वच्छता, आत्मपरिष्कार, पारिवारिकता और बृहत्तर सामाजिकता का उन्मेष है! यह एक लोक विमर्श है जिसके कई संकेत बड़े महत्वपूर्ण हैं जिनकी ओर ध्यान जाना चाहिए।
छठ पर्व में केले के पूर्ण गुच्छों से व्यक्ति के महत्व के साथ एक सामूहिकता का बोध होता है। स्त्रियां गाती हैं,’ केलवा जे फरेला धवद से ओह पर सुगा मेड़राय!’ गीत का अर्थ है– केले के पेड़ पर गुच्छे के पास सुग्गा मंडरा रहा है। सुग्गा भूख के कारण गुच्छे को जूठा कर देता है और धनुष से मारा जाता है। आगे है— सुग्गे की पत्नी वियोग से रोने लगती है। कोई देव सहाय नहीं होता। अभिप्राय यह है कि अवमानना की शिकार स्त्री की आवाज अनसुनी है। उसकी पीड़ा को सिर्फ सूर्यदेव समझ सकते हैं। वह भी नहीं सुनेंगे तो कौन सुनेगा। स्त्रियों का छठ पर्व स्त्रियों की आवाज सुने जाने के लिए है। इसे ठेकुआ खाने तक सीमित नहीं कर देना चाहिए!
छठ पर्व दिवाली के तीन दिनों बाद शुरू हो जाता है। इसी समय किसानों के घर नया अन्न, ईख और नए फल आते हैं। इस पर्व में सूप, दउरा, आदि का बड़ा महत्व है जो दलितों के घरों में ही बनते हैं। इससे पिछड़ी और दलित जातियों की एकता का बोध होता है। सूर्य की जिस उपासना से छठ का संबंध हो सकता है, वह महाभारत का मिथकीय चरित्र सूतपुत्र कर्ण है। वह हर सुबह कमर तक पानी में खड़ा होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य एकमात्र वैदिक देवता हैं जो हिंदुओं के आराध्य बने रहे। मुख्य घटना है, धीरे- धीरे छठ पर्व अपने महत्वपूर्ण सार के कारण सभी जातियों की स्त्रियों में प्रचलित हो गया। छठ पर्व कुछ समय के लिए हर भेदभाव मिटा देता है!
यह अनोखी बात है कि आम स्त्रियों में भेदभावों को तोड़ने की प्रवृत्ति तीव्र होती है और वे कभी हिंसा या दंगा पसंद नहीं करतीं। उनकी इस क्षमता का विकास किया जाना चाहिए। दरअसल दुनिया का कोई भेदभाव स्त्रयों से पूछकर नहीं बना। इस देश में कोई हिंसा स्त्रियों से पूछकर नहीं होती! ये सारी चीजें पुरुषों की कारगुजारियां हैं!!
छठ पूजा लोकोन्मुख स्त्री विमर्श का एक अच्छा उदाहरण है जिसे अभिजात स्त्रीवाद के बरक्स देखा जा सकता है। इसमें संदेह नहीं कि स्त्रीवाद की शिक्षित मध्यवर्गीय स्त्रियों में स्वत्व का बोध कराने में और सामंती पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देने में एक बड़ी भूमिका है। लेकिन अब न केवल वह होमोजीनियस और एकायामी हो चुका है बल्कि जाति, धार्मिक कट्टरता, व्यक्तिवाद और बाजारवाद के प्रश्नों पर वह प्रायः मौन है। निश्चय ही स्त्रीवाद को स्त्री चेतना की अंतिम मंजिल मान लेना और नई कहानी युग के ‘अनुभववाद’ में अटके रहना एक बड़ी भूल होगी। आखिरकार छठ पूजा करने वाली या रूढ़ियों से जकड़ी करोड़ों गरीब स्त्रियों को संबोधित करने की शक्ति तो सिर्फ देह पर विमर्श तक सीमित रहने से नहीं पैदा होगी, इतना निश्चित है!
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